पहल, तद्भव, वसुधा, अकार, कथाक्रम आदि पत्रिकाएं कितनों के यहां आती हैं और कितने लोग इन्हें वाकई पढ़ते हैं। कम शायद बहुत ही कम। कुछ ही लोगों तक पहुंच है इन साहित्यिक पत्रिकाओं की। अभी ये, कैसे भी करके, चल-निकल रही हैं। मगर कब तक। जब तक इनके संपादक हैं। उनके बाद इन पत्रिकाओं का क्या होगा, अंजाम हमें मालूम है। साहित्य में युवा पीढ़ी की रुचि कितनी है, अपवाद छोड़कर, ये हमें मोबाइल पर उनकी गर्दनें झुकी देखकर पता चल ही जाता है। इस पीढ़ी के लिए किताबों से कहीं अधिक जरूरी मोबाइल हैं। उन पर जो आ रहा है, व्हाट्सएप या फेसबुक पर जो उन्हें मिल रहा है, वही इनके लिए 'पर्याप्त' है। 'ई-बुक' और 'किंडल' पर जान न्यौछावर करती है ये पीढ़ी।
60 और 70 के बाद की पीढ़ी फिर भी कुछ पुरानी चीजों को संभाले व संजोए हुए है। 2000 के बाद की पीढ़ी कभी पुराना कुछ संभाल पाएगी, मुझे शक है। दुनिया और जमाना जितनी तेजी से बदलकर डिजिटल होता जा रहा है, ऐसे में साहित्यिक पत्रिकाओं का वर्तमान और भविष्य 'शून्य'-सा ही नजर आता है। नई पीढ़ी के पास समय नहीं। समय है फिर भी नहीं। साहित्य के लिए, खासकर हिंदी साहित्य के लिए, उनके पास वाकई समय नहीं। साहित्य पर उनका ज्ञान 'प्रेमचंद' तक सीमित है। बाकी अंग्रेजी के लेखक उनके लिए बहुतेरे हैं। हिंदी की पत्रिकाओं या अखबारों में क्या चल रहा है उन्हें नहीं मालूम। हां, 'रसोड़े में कौन था' निश्चित ही उन्हें मालूम होगा!
कादम्बिनी और नंदन पत्रिकाओं का बंद होना मेरे जैसे लोगों के लिए किसी 'बुरी खबर' या 'सदमे' से कम नहीं। ये वे पत्रिकाएं थीं, जिन्हें पढ़कर हमने साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति अपनी सोच विकसित की। उन्हें जाना-समझा। साहित्य और संस्कृति के विविध रूप-रंग देखे। दुखद है कि अब यह हमारे बीच न रहेगीं। पर इनके न रहने पर कितने लोग 'अफसोस' जताएंगे? बहुत कम। क्योंकि उनके लिए किसी भी पत्रिका का बंद होना कोई खबर नहीं होता। उनकी जिंदगी जैसी है, वैसी ही चलती रहेगी। किसी पत्रिका या अखबार का बंद होना, एक 'विचार' का बंद हो जाने के समान होता है। विचार यों भी अब पत्रिकाओं और अखबारों से छीजने लगा है। राजनीतिक स्वार्थ अधिक हावी होते जा रहे हैं। विचार को सोशल मीडिया बहुत तेजी से निगल रहा है। और हम खामोश बैठे तमाशा देख रहे हैं।
गनीमत है, अभी हंस और कथादेश जैसी बड़ी पत्रिकाएं हमारे बीच हैं लेकिन कब तक! जब हम धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान जैसी पत्रिकाओं के बंद होने पर चुप्पी साधे रहे, कोई आश्चर्य नहीं कि कल को 'हंस' और 'कथादेश' के बंद होने पर भी कुछ न बोलेंगे। बहुत होगा तो फेसबुक पर एक पोस्ट लिख, मातम मना लेंगे। हिन्दी समाज, कहना न होगा, अपनी भाषा और पत्रिकाओं के प्रति बहुत 'उदासीन' रहता है। उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे 'कादम्बिनी' बंद या 'नंदन'। उसकी अपनी दुनिया है, जो फेसबुक और मोबाइल पर दिन-रात व्यस्त रहती है।
सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है। पत्रिकाओं के आर्थिक पक्ष इतने कमजोर हैं कि वे निकलें भी तो कैसे। जब उन पर आर्थिक संकट होता है, तब कोई निकलकर सामने नहीं आता मदद को। बाहर से बातें बनाने और 'कुछ करने' में बहुत अंतर है। पत्रिकाओं के साथ प्रायः होता यह है कि उनका प्रबंधन ही उन्हें काल के गाल में समा देता है। वहीं अंग्रेजी पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार हिंदी से कहीं बेहतर है। ऐसा नहीं कि वहां पत्रिकाएं बंद नहीं हुईं, हुई हैं मगर हिंदी में यह संख्या कुछ अधिक ही है। पत्रिका या अखबार को चला पाना इतना आसान नहीं होता। जब आर्थिक मदद नहीं मिलेगी फिर एक उन्हें बंद होना ही होगा।
वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी को अपनी पत्रिका संदर्श को निकालना इसलिए स्थगित करना पड़ा क्योंकि उनके पास संसाधन नहीं। अपना घर फूंक कर कब भला कौन कब तलक तमाशा देखेगा। इसीलिए 'संदर्श' के सफर को भी बीच में ही रोक देना पड़ा। हसन जमाल की पत्रिका 'शेष' का भी कुछ पता नहीं कि वो अब निकल भी रही है या बंद हो गई। हिंदी-उर्दू के मध्य एक सेतु की तरह थी शेष। कितने ही उर्दू अफसानानिगारों के हिंदी अनुवाद (अफसाने) शेष में पढ़े हैं हमने।
अफसोस के अतिरिक्त हमारे पास कुछ नहीं कादम्बिनी और नंदन के बंद हो जाने पर। अभी आगे और कितनी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं आर्थिक स्तर पर दम तोड़ेगी, नहीं पता। तब भी हमारे पास 'अफसोस' ही होगा जतलाने को।