Sunday, January 19, 2020

कठिन जीवन के बरक्स

प्रतीकात्मक चित्र
 जीवन कभी किसी दौर में 'आसान' नहीं रहा है। न तब का दौर, जब सोशल मीडिया और इंटरनेट नहीं था, आसान था। न अब, जब सोशल मीडिया और इंटरनेट जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं, आसान है। जीवन को आसान मान या समझ लेना, हमारी खामख्याली है। जीवन का ऐसा कोई मोड़ नहीं, जहां संघर्ष न हो। कठिनाइयां न हों। और, ऐसा भी नहीं है जिसने इन संघर्षों और कठिनाईयों से पार पा लिया, उसने जीवन को जीत लिया हो। हां, अपने आत्म-संतोष के लिए इसे जीता माना जा सकता है।

अक्सर ही लोगों को कहते सुनता हूं कि आज का समय, जबकि सोशल मीडिया ने सबकुछ को काफी नजदीक ला दिया है, बड़ा आसान है। झट से चीजें यहां से वहां चली जाती हैं। आपस में बातें करना कितना सरल हो गया है। कहीं आने-जाने की जरूरत ही नहीं, बस जहां हैं, वहीं से बैठे-बैठे कुछ भी खरीद लो या बेच दो।

कहना न होगा कि सोशल मीडिया के चलन और इंटरनेट के प्रभाव ने जीवन को 'आरामतलबी' वाला बना दिया है। यही आरामतलबी अब हमारे लिए नासूर बनती जा रही है। पहले दो घड़ी बैठकर जीवन और संबंधों के बारे में सोच-विचार भी लेते थे मगर अब ऐसा नहीं है। अब तो हर जगह से संबंधों को सीमित करने का रिवाज-सा चल पड़ा है। हर कोई अपने समय न मिलने की समस्या बता देता है। जबकि समय सबके पास होता है लेकिन देना उसे कोई नहीं चाहता।

जीवन को हमने एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां दूर-दूर तक रास्ते ही नजर आते हैं, लेकिन मंजिल कहीं नहीं मिलती। जहां मंजिलें नजर आती भी हैं, उनके सौदे हो चुके होते हैं। जो जिस राह चल रहा है, चलने दें टोके नहीं उसे।

मुझे तो अपने आसपास बे-गर्दन लोग ही दिखाई देते हैं। क्या करें, सबकी गर्दनें तो अपने-अपने मोबाइल फोन में घुसी रहती हैं। जो भी बात कहनी-सुननी होती हैं, टच-स्क्रीन पर उंगलियां ही कहती-सुनती हैं। हालांकि इर्दगिर्द शोर तो बहुत है पर यह इंसानों से ज्यादा गाड़ियों का है।

किस्से-कहानियां सुनाने वाली पीढ़ी चला-चली के दौर में है। जो हैं भी उन्हें देने के लिए हमारे पास वक़्त नहीं। पुरानी पीढ़ी के किस्से भी क्या खूब किस्से हुआ करते थे, सीधे उनके जीवन से निकले। जहां जीवन को जाकर खोजना नहीं पड़ता था, वो साक्षात आपके सामने खड़ा रहता था। तरह-तरह के अनुभव देकर जाता था। साहित्य ऐसी कहानियों से बिखरा पड़ा है।

कभी-कभी सोच में पड़ जाता हूं कि हमारी पीढ़ी के पास आगे आने वाली पीढ़ी को देने के लिए क्या है। कितने किस्से-कहानियां हैं। कितने जीवन के टेढ़े-मेढ़े अनुभव हैं। कितनी बातें हैं। सब कुछ को तो हमने एक डिब्बे (मोबाइल) में बंद किया हुआ है। उससे बाहर कुछ भी जाने ही नहीं देना चाहते। मन में एक डर-सा लगा रहता है कि किस्से बाहर आ गए तो क्या होगा? यह डर ही तो हमारे जीवन को कष्टदायक बना रहा है।

रिश्तों में ही अजीब-सा खिंचाव आ गया है। जिन रिश्तों को कभी करीबी माना जाता था, उनमें दूरियां बढ़ गई हैं। हम संबंधों-रिश्तों की परिभाषाएं फेसबुक पर गढ़ने लगे हैं। यहां वो आदमी खुद को बड़ा सौभाग्यशाली मानता है, जिसके फेसबुक पर हजारों की संख्या में मित्र होते हैं। जिसके लिखे को हजारों लोग लाइक करते व टिप्पणी देते हैं। मन में हर समय यह चाह पलती रहती है कि इसमें अभी और इजाफा होना चाहिए।

वहां हमने अपना कुछ भी निजी नहीं रहने दिया है। सबकुछ सार्वजनिक कर डाला है। अब सामने वाले को यह तक पता होता है कि आप कब क्या खा रहे हैं और कितने बजे सोने जा रहे हैं। कहां-कहां घूम-फिर आए हैं।

कुछ लोग इसी लफ्फाजी में जीवन का सुख तलाशते हैं। उनके लिए सबकुछ अब यही है। जमीन से निरंतर कटते जा रहे हैं लोग। जब देखो तो हर शख्स किसी गफलत में डूबा-सा नजर आता है। बेचैन रहता है पर जताता ऐसे है मानो दुनिया का सबसे सुखी आदमी वही है।

अपनों से कटकर वर्चुअल संसार में जीवन का सुख और आराम खोजने वाले कभी खुश नहीं रह सकते। उनके चेहरों पर जिस खुशी को आप देख रहे हैं, दरअसल, वो खुशी नहीं, उनकी हार है। एक ऐसी हार जिसे वे कभी जीत नहीं सकते।

जीवन कितनी आसानी से हमारे ही सामने लुटता जा रहा है। और हम हैं कि खड़े-खड़े तमाशा देख रहे हैं। खुद में ही इतने उलझकर रह गए हैं कि सामने वाले की पीड़ा भी हमें अब दिखाई नहीं देती। मदद को उठाने वाले हाथ भी 'कुछ अपेक्षा' की दरकार रखते हैं। क्या इतने ही असंवेदनशील थे हम?

ये लोग। ये जीवन। कभी ऐसा तो नहीं था। सबकुछ कितना बदल गया है। बदलता जा रहा है। यों, बदलाव बुरे नहीं होते लेकिन हमने तो बदलावों को अपने ही विरुद्ध खड़ा कर लिया है।

जीवन आगे जाकर सरल नहीं और कठिन ही होना है। तब तो हम-आप और हमारे संबंध और रिश्ते और भी कठिनतर हो जाएंगे। फिर क्या कोई ऐसा भी होगा हमारे पास जिसे हम अपना कह पुकार पाएंगे। सोचिएगा जरा।

Wednesday, January 8, 2020

बाजार, किताब और लेखक

किताबों और लेखकों दोनों की दुनिया बदल चुकी है। किताबें अब भी खूब छप रही हैं। लेखक अब भी खूब लिख रहे हैं। बदलाव बस यह आया है कि दोनों के बीच अब बाजार आ गया है। बाजार ने ही दोनों को एक-दूसरे से जोड़ रखा है। आज हर किताब और हर लेखक का अपना बाजार है। इसी के सहारे वे अपने पाठकों तक पहुंच रहे हैं। बाजार की जैसी डिमांड है उस हिसाब से लिख भी रहे हैं। हिंदी और अंगरेजी में यह काम अब बराबर का हो रहा है। बहुत से अंगरेजी के लेखकों की किताबें अनुवादित होकर हिंदी में भी आ रही हैं। अंगरेजी से इतर हिंदी में भी उनका बाजार डेवलप हो रहा है। यह न केवल हिंदी बल्कि बाजार, लेखक और पाठक के लिए भी अच्छा संकेत है।

इस बाजार को बनाने में ऑन-लाइन प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया की भी महत्ती भूमिका है। आज की तारीख में शायद ही ऐसा कोई लेखक होगा, जो सोशल मीडिया पर न हो। या जिसकी किताब ऑन-लाइन उपलब्ध न हो। लेखक अब अपनी किताब खुद ही बेच रहा है। अपने फेसबुक पेज और ट्विटर खाते से अपनी किताबों का प्रचार-प्रसार कर रहा है। इसका फायदा लेखक को यह मिला है कि उसकी पाठकों और दुनिया भर में 'रीच' बढ़ी है। ज्यादा से ज्यादा लोग उसे जानने व पढ़ने लगे हैं। वो स्थापित हो रहा है लेखन की दुनिया में। इस बहाने के एक नई तरह की दुनिया और समाज उसके समक्ष खुल रहा है। नए पाठक मिल रहे हैं। नई प्रतिक्रियाएं सुनने व पढ़ने को मिल रही हैं। और तो और शशि थरूर जैसे अंग्रेजीदां भी कभी-कभार हिंदी में ट्वीट करने लगे हैं। उनकी किताब के हिंदी अनुवाद आ रहे हैं।

यह कहना गलत न होगा कि बाजार और भाषा के टूटते बंधनों ने बहुत हद तक लेखकों और पाठकों को नजदीक लाने का काम किया है। साथ-साथ हिंदी के लेखकों की किताबें भी अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में अनुवादित होकर खूब बिक रही हैं।

ऐसा भी नहीं है कि किताबें सिर्फ ऑन-लाइन ही बिक रही हैं। ऑफ-लाइन भी किताबें खूब बेची जा रही हैं। जब बिक रही हैं तो इसका मतलब लोग पढ़ रहे हैं। अक्सर यह ताना मार दिया जाता है कि लोग अब पढ़ते ही कहां हैं। मोबाइल ने पढ़ने की भूख छीन ली है। पर ऐसा नहीं है। जिन्हें पढ़ने का शौक है, वे आज भी पढ़ रहे हैं। चाहे इंटरनेट पर पढ़ें या किंडल पर लेकिन पढ़ रहे हैं। खोज-खोजकर पढ़ रहे हैं। पढ़ने के लिए समय निकाल रहे हैं। युवा पीढ़ी में भी कुछ युवा ऐसे हैं, जिन्हें किताबों से प्रेम है और वे जीभर कर पढ़ते हैं। अपने पसंदीदा लेखक से संवाद भी बनाए रखते हैं।

दिल्ली में हर साल लगने वाला पुस्तक मेला दरअसल हमारे पढ़ने की भूख को जिंदा रखे रहने का एक खूबसूरत आयोजन है। किताबों के दीवाने मेले तक पहुंचते हैं, अपनी पसंद की किताबें खरीदते हैं। इस बहाने उनका उन लेखकों से भी मिलना हो जाता है, जिन्हें वे अब तक पढ़ते आए हैं। उनसे संवाद बनता है।

पुस्तक मेला भी बाजार में किताबों को स्थापित कर रहा है। यह बात अब हर कोई जान-समझ गया है कि बिना बाजार में आए या उसका सहारा लिए अब अपनी किताब को बेच पाना असंभव है। शुद्धतावादी लेखन और लेखकों के जमाने अब लद चुके हैं। लिखा वो जा रहा है, जो बिके। लेखन अगर दिलचस्प होगा तो शर्तिया बिकेगा। श्रीलाल शुक्ल का क्लासिक 'राग दरबारी' इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी आज तक बिंदास बिक रहा है और खूब पढ़ा भी जा रहा है। प्रेमचंद और परसाई को भी पढ़ा जा रहा है। गीत चतुर्वेदी और मानव कौल जैसे कवि युवाओं की पसंद बन चुके हैं।

अब तक इस बात का सेहरा अंगरेजी के लेखकों के सिर पर ही बांधा जाता था कि वे बड़ी खूबसूरती से बाजार में अपनी किताबें बेच लेते हैं। बाजार भी उन्हें हाथों-हाथ लेता है। विज्ञापन के सहारे भी वे अपनी किताब को बाजार और पाठकों के बीच लेकर आते हैं। माना कि अंगरेजी में हिंदी के मुकाबले मैरिट थोड़ी ज्यादा है पर अब हिंदी के लेखक भी खुद को बाजार से जोड़ रहे हैं। वे भी अपनी किताब का प्रमोशन कर रहे हैं। शहरों में लगने वाले पुस्तक मेलों में वे भी अपनी किताब के साथ मौजूद होते हैं। पाठक भी उनके प्रति अब सजग हो रहा है। लेखक और पाठक के बीच फासले घट रहे हैं। यह आवश्यक भी है। हर पाठक को हर लेखक से संवाद का हक है। ताकि वो लेखक के लेखन की रचना प्रक्रिया को जान-समझ सके। कुछ अपनी कहे तो कुछ लेखक की सुने।

इंटरनेट और सोशल मीडिया लेखकों और पाठकों को और नजदीक लाया है। अब कितना आसानी से पाठक लेखकों की पढ़ी हुई किताबों पर अपनी राय रख सकता है। जबकि कुछ समय पहले तक यह इतना आसान न था। तब संवाद की प्रक्रिया काफी इंतजार लेती थी। खत लिखे जाते थे। तब कहीं जाकर जवाब आता था मगर अब लेखक और पाठक दोनों एक-दूसरे के करीब हैं। सोशल मीडिया इस पुल को बहुत खूबसूरती से जोड़े हुआ है।

पुस्तक मेला एक दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के हर शहर, गांव-कस्बों में निरंतर लगते रहने चाहिए। इससे लोगों के भीतर किताब को खरीदकर पढ़ने की आदत तो बनेगी ही साथ-साथ किताबों की बाजार में डिमांड भी बढ़ेगी। बाजार और किताब को एक-दूसरे का पूरक बनना ही होगा। जैसे-जैसे डिमांड बढ़ेगी, कॉम्पिटिशन भी बढ़ेगा; फायदा लेखक और किताब को ही होगा। पाठकों को भी अच्छा पढ़ने को मिल जाया करेगा।

यह समय बाजार का है। जिस लेखक ने खुद को बाजार के अनुरूप ढाल लिया फिर उसे 'हिट' होने से कोई नहीं रोक सकता।