Wednesday, March 4, 2020

चिट्ठियों का वो दौर

अंतिम चिट्ठी कब और किसे लिखी थी, कुछ याद नहीं। ऐसा भी नहीं है कि अब चिट्ठियां लिखी ही नहीं जातीं। निश्चित ही लिखी जाती होंगी पर या तो सरकारी या फिर औपचारिक। एक-दूसरे की चिट्ठी लिखकर कुशल-क्षेम पूछने के दिन कब के हवा हुए। विडंबना यह है कि अब तो आसपास 'लैटर बॉक्स' भी नजर नहीं आते।

चिट्ठियों को भी अब बीती सदी की बात मान लिया गया है। आज की पीढ़ी ने तो शायद न 'पोस्टकार्ड' देखे होंगे न 'अंतर्देशीय पत्र'। न हमने ही उन्हें कभी बताने की फुर्सत पाई होगी कि एक दौर ऐसा भी रहा है, जब आपसी संवाद का जरिया 'चिट्ठियां' हुआ करती थीं। आज जितनी बेसब्री से व्हाट्सएप पर मैसेज पाने का इंतजार रहता है, उस दौर में उतनी ही बेसब्री से चिट्ठी पाने का इंतजार रहता था। मगर उस इंतजार का अपना ही मजा था। तब डाकिया हमारा 'भगवान' हुआ करता था। उसके हाथ में अपनी चिट्ठी देखकर जो खुशी मिलती थी, वो आज ई-मेल या व्हाट्सएप पाकर भी नहीं मिलती। बेशक वो दौर अलग था पर था खूबसूरत।

ई-मेल और अन्य मैसेजिंग एप्स ने यकीनन संदेशों की दूरियों को घटाया है मगर सबकुछ मशीनी कर दिया है। अब तो एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) जैसी एडवांस तकनीक को डेवलप कर, दिमाग और सोच की पूरी परिकल्पना को ही बदलकर रख दिया गया है। आप की सोच से तेज मशीन सोचने लगी है। मशीन आपका दिमाग पढ़ रही है। हर सोच को सोचने में आपकी मदद कर रही है। आप क्या, कितना और कहां सोच रहे हैं मशीन को सब खबर रहती है। इन दिनों पूरे विश्व में एआई पर बहुत तेजी से काम हो रहा है। अब तो इसके सकारात्मक रिजल्ट भी आना शुरू हो गए हैं।

कभी-कभी इंतजार मुझे खोखला और बेमानी शब्द लगता है। आज के युग में किसी से इंतजार करने को बोलो तो मुंह बिचकाता है। उसे इंतजार नहीं सबकुछ अभी और इंस्टेंट मोड में चाहिए। एसएमएस का दौर जब तक रहा तब तक थोड़ा फिर भी सुकून था कि देर-सवेर संदेशा आ ही जाएगा। लेकिन व्हाट्सएप के आ जाने से तो वो बेसब्री का पारा कभी-कभी इतना ऊंचाई पर पहुंच जाता है कि कुछ पूछिए ही मत। इधर व्हाट्सएप किया उधर 'ब्लू टिक' दिखा नहीं कि आंखें मैसेज पढ़ने के इंतजार में लगी रहती हैं।

डिजिटल दुनिया ने हमारे दिमाग, सोच, व्यवहार की संरचना को कुछ ऐसा बना दिया है कि बीच में से 'धैर्य' समाप्त ही हो गया है। ऐसे में भला आज के मनुष्य से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो चिट्ठी का इंतजार करेगा या किसी को लिखेगा! मुश्किल है। समय की कमी और अति-व्यस्तताओं ने सब गुड़गोबर कर दिया है। दूसरों का तो दूर की बात रही, हमारे पास इतना भी समय नहीं होता कि थोड़ा रुककर अपना ही इंतजार कर लें।

चिट्ठियों ने हमारे रिश्तों को भी खूब संभाला व सहेजा था। आज भी कहीं किन्हीं पुरानी चिट्ठियों के बीच जब किसी रिश्तेदार या दोस्त की चिट्ठी हाथ लग जाती है, तब उस खुशी को बयां कर पाना मुश्किल होता है। उनमें व्यक्त एक-एक शब्द दिल के करीब लगता है। मैं तो अक्सर ही उन पुरानी चिट्ठियों को पढ़ने बैठ जाता हूं। वो भी एक अलग तरह का साहित्य है। इस साहित्य में परिवार भी है, समाज भी है, दुख-सुख भी हैं, अपनापन भी है जो ईमेल या व्हाट्सएप पाने पर महसूस नहीं किया जा सकता।

बदलते समय का प्रभाव इतना पड़ा है कि अब पत्रिकाओं में लेखकों के पते भी कम छपने लगे हैं। या तो उनके ईमेल दर्ज रहते हैं या फिर मोबाइल नंबर। पहले पत्र संपर्क में नीचे लेखक का पता जाता था। अब चिट्ठी कौन लिखे! लेख पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया ईमेल या फोन कर दे दी। कुछ अखबारों में तो 'पत्र स्तंभ' भी सिमट-सा गया है।

दुखद है, हमने पुराना कुछ भी नई पीढ़ी के लिए नहीं छोड़ा है। सबकुछ को धीरे-धीरे कर नष्ट करते जा रहे हैं। सिर्फ चिट्ठियां ही नहीं, रिश्ते भी बहुत तेजी से बेमानी हो रहे हैं। सब इतिहास के पन्नों में चले जाने को अभिशप्त है। कभी कलम थामे रहने वाला वर्ग अब 'की-पैड' और 'टच-स्क्रीन' का गुलाम बनकर रह गया है। भला किसे फुर्सत है, खत लिखने और पढ़ने की। डिजिटल माया की गिरफ्त में सब कैद हैं।

यह सही है कि चिट्ठियों का वो 'सुनहरा दौर' लौटकर वापस नहीं आएगा। जब-तब यादों में आकर हमें याद दिलाता रहेगा कि कभी अपना वक़्त भी था। बदलते समय में स्थायी कुछ होता। हो सकता है, ईमेल और व्हाट्सएप से भी एडवांस कुछ और आ जाए। हो सकता है, लिखे हुई शब्द किसी और ही रूप में हमारे सामने हों। ऐसे समय में जब मशीन ने इंसानी दिमाग को पढ़ना शुरू कर दिया है, तब यहां कुछ भी संभव है।

ऐसा खैर कर तो नहीं पाएंगे। लेकिन जब समय हो और दिल करे तो एक चिट्ठी अपने पते पर अपने ही नाम लिख भेजिए। अच्छा लगेगा।

हिंसा और सोशल मीडिया

क्या सोशल मीडिया से मुझे अब हमेशा के लिए दूर हो जाना चाहिए? बार-बार यह सवाल मेरे मन में आता है। जो और जैसे हालात इन दिनों सोशल मीडिया के बना दिए गए हैं या बना दिए जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए इससे दूरी अब उचित लगने लगी है। दिन-रात यहां शब्दों, विचारों और भाषा की 'हिंसा' का तमाशा चलता रहता है। कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर किसी को कुछ भी कह दिया जाता है। न छोटे में छोटेपन की, न बड़े में बड्डपन की 'तमीज' रह गई है। जहां कोई किसी से किसी मुद्दे या बात पर असमहत हुआ बस गरियाना शुरू। यह जहिलपन नहीं क्या?

कभी-कभी मुझे लगता है, जितनी हिंसा जमीन पर हो रही है, उससे कहीं अधिक यहां सोशल मीडिया पर चल रही है। यहां लोग लिखते नहीं बल्कि मन की भड़ास निकालते हैं। खुद के लिखे को सही मगर दूसरे के लिखे को गलत साबित करने में किसी भी सीमा को पार कर सकते हैं। न किसी के पास धैर्य है सुनने का न किसी के पास सहनशक्ति है आलोचना को बर्दाश्त करने की। जिसे देखो वो कुएं का मेढ़क बना हुआ है; दिन-रात वही टर्र-टर्र। कितना शाब्दिक जहर भरा है लोगों के दिलो-दिमाग में कि पढ़कर कोफ्त होती है।

इससे तो कहीं बेहतर और सभ्य हम सोशल मीडिया के आने से पहले थे। तब हमारे दिमागों और दिलों में इतना जहर तो नहीं भरा था। तब हम आपस में बहस भी करते थे, लड़ते भी थे, बुरा-भला भी कहते थे मगर शालीनताएं फिर भी साथ थीं। तब दंगों पर राजनीति नेता या पार्टियां करती थीं। लेकिन अब आलम यह है कि सोशल मीडिया पर जमा हर व्यक्ति दंगों पर न सिर्फ राजनीति कर रहा है बल्कि हिंसक तस्वीरों और वीडियो से भड़का भी रहा है। क्या एक सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश में इसे उचित कहा या माना जाएगा? नहीं, कभी नहीं। उस व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं, जो बिगड़ैल बोलों से जनमानस को भड़काए। पर दुखद है, इन दिनों यही हो रहा है। दुख तब अधिक होता है, जब खुद को लिबरल कहने वाले भी शब्द और भाषाई मर्यादा की परवाह नहीं करते। वे विचार और विचारधारा की बात तो करते हैं किंतु स्वयं उसका ध्यान नहीं रखते।

मुझे लगता है, हममें से हर एक ने अपनी बुद्धि को सांप्रदायिक लोगों के पास गिरवी रख दिया है। खुद अपनी अक्ल से काम लेना बंद कर दिया है। जो नेता कह-बोल रहा है, उसे ही पत्थर की लकीर मान लिया है। कैसे, आखिर कैसे हम सोशल मीडिया पर लिखी और फैलाई जा रही हर बात को सच मान सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम मारपीट और हिंसा का समर्थन कर सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम जलती दुकानों, जलते घरों और जलते शहर को देखकर खुश हो सकते हैं? मत भूलिए, हम इंसान हैं जानवर नहीं। क्या इंसानियत नाम की कोई चीज हममें अब बाकी नहीं रह गई है! क्या हम भी उसी भेड़चाल का हिस्सा हो गए हैं! क्या देश की भी हमें अब कोई परवाह नहीं!

चौबीस घंटे सोशल मीडिया और टीवी पर चलने वाली इस हिंसा को मैं नहीं देख सकता। एक मैं ही नहीं मुझ जैसा हर वो शख्स यह सब नहीं देखना चाहेगा, जो अपने दिल में इंसान, समाज और देश के प्रति प्यार और संवेदनशीलता रखता है। न केवल सोशल मीडिया बल्कि समाज में व्याप्त इस हिंसा को हमें रोकना ही होगा। नहीं तो हमारा देश और समाज बिखर जाएगा। इसका लोकतांत्रिक तानाबाना गड़बड़ा जाएगा। ध्वस्त हो जाएंगे वो मूल्य जो कभी हमारे पूर्वजों ने केभी स्थापित किए थे। फिर, आगे आने वाली पीढ़ी को हम क्या देंगे! उसे क्या बताएंगे कि हम कैसे और किस हद तक साम्प्रदायिक हैं!

सोशल मीडिया को इतना हिंसक मत बनाइए कि मेरे जैसे संवेदनशील इंसान यहां से खुद को हमेशा के लिए दूर रखने के बारे में सोचने लगें। असहमति, आलोचना और विरोध दर्ज करवाइए पर भाषाई दायरे में रहकर। खुद में और जानवर इतना तो फर्क हमें रखना ही होगा। नहीं क्या?