क्या सोशल मीडिया से मुझे अब हमेशा के लिए दूर हो जाना चाहिए? बार-बार यह सवाल मेरे मन में आता है। जो और जैसे हालात इन दिनों सोशल मीडिया के बना दिए गए हैं या बना दिए जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए इससे दूरी अब उचित लगने लगी है। दिन-रात यहां शब्दों, विचारों और भाषा की 'हिंसा' का तमाशा चलता रहता है। कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर किसी को कुछ भी कह दिया जाता है। न छोटे में छोटेपन की, न बड़े में बड्डपन की 'तमीज' रह गई है। जहां कोई किसी से किसी मुद्दे या बात पर असमहत हुआ बस गरियाना शुरू। यह जहिलपन नहीं क्या?
कभी-कभी मुझे लगता है, जितनी हिंसा जमीन पर हो रही है, उससे कहीं अधिक यहां सोशल मीडिया पर चल रही है। यहां लोग लिखते नहीं बल्कि मन की भड़ास निकालते हैं। खुद के लिखे को सही मगर दूसरे के लिखे को गलत साबित करने में किसी भी सीमा को पार कर सकते हैं। न किसी के पास धैर्य है सुनने का न किसी के पास सहनशक्ति है आलोचना को बर्दाश्त करने की। जिसे देखो वो कुएं का मेढ़क बना हुआ है; दिन-रात वही टर्र-टर्र। कितना शाब्दिक जहर भरा है लोगों के दिलो-दिमाग में कि पढ़कर कोफ्त होती है।
इससे तो कहीं बेहतर और सभ्य हम सोशल मीडिया के आने से पहले थे। तब हमारे दिमागों और दिलों में इतना जहर तो नहीं भरा था। तब हम आपस में बहस भी करते थे, लड़ते भी थे, बुरा-भला भी कहते थे मगर शालीनताएं फिर भी साथ थीं। तब दंगों पर राजनीति नेता या पार्टियां करती थीं। लेकिन अब आलम यह है कि सोशल मीडिया पर जमा हर व्यक्ति दंगों पर न सिर्फ राजनीति कर रहा है बल्कि हिंसक तस्वीरों और वीडियो से भड़का भी रहा है। क्या एक सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश में इसे उचित कहा या माना जाएगा? नहीं, कभी नहीं। उस व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं, जो बिगड़ैल बोलों से जनमानस को भड़काए। पर दुखद है, इन दिनों यही हो रहा है। दुख तब अधिक होता है, जब खुद को लिबरल कहने वाले भी शब्द और भाषाई मर्यादा की परवाह नहीं करते। वे विचार और विचारधारा की बात तो करते हैं किंतु स्वयं उसका ध्यान नहीं रखते।
मुझे लगता है, हममें से हर एक ने अपनी बुद्धि को सांप्रदायिक लोगों के पास गिरवी रख दिया है। खुद अपनी अक्ल से काम लेना बंद कर दिया है। जो नेता कह-बोल रहा है, उसे ही पत्थर की लकीर मान लिया है। कैसे, आखिर कैसे हम सोशल मीडिया पर लिखी और फैलाई जा रही हर बात को सच मान सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम मारपीट और हिंसा का समर्थन कर सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम जलती दुकानों, जलते घरों और जलते शहर को देखकर खुश हो सकते हैं? मत भूलिए, हम इंसान हैं जानवर नहीं। क्या इंसानियत नाम की कोई चीज हममें अब बाकी नहीं रह गई है! क्या हम भी उसी भेड़चाल का हिस्सा हो गए हैं! क्या देश की भी हमें अब कोई परवाह नहीं!
चौबीस घंटे सोशल मीडिया और टीवी पर चलने वाली इस हिंसा को मैं नहीं देख सकता। एक मैं ही नहीं मुझ जैसा हर वो शख्स यह सब नहीं देखना चाहेगा, जो अपने दिल में इंसान, समाज और देश के प्रति प्यार और संवेदनशीलता रखता है। न केवल सोशल मीडिया बल्कि समाज में व्याप्त इस हिंसा को हमें रोकना ही होगा। नहीं तो हमारा देश और समाज बिखर जाएगा। इसका लोकतांत्रिक तानाबाना गड़बड़ा जाएगा। ध्वस्त हो जाएंगे वो मूल्य जो कभी हमारे पूर्वजों ने केभी स्थापित किए थे। फिर, आगे आने वाली पीढ़ी को हम क्या देंगे! उसे क्या बताएंगे कि हम कैसे और किस हद तक साम्प्रदायिक हैं!
सोशल मीडिया को इतना हिंसक मत बनाइए कि मेरे जैसे संवेदनशील इंसान यहां से खुद को हमेशा के लिए दूर रखने के बारे में सोचने लगें। असहमति, आलोचना और विरोध दर्ज करवाइए पर भाषाई दायरे में रहकर। खुद में और जानवर इतना तो फर्क हमें रखना ही होगा। नहीं क्या?
कभी-कभी मुझे लगता है, जितनी हिंसा जमीन पर हो रही है, उससे कहीं अधिक यहां सोशल मीडिया पर चल रही है। यहां लोग लिखते नहीं बल्कि मन की भड़ास निकालते हैं। खुद के लिखे को सही मगर दूसरे के लिखे को गलत साबित करने में किसी भी सीमा को पार कर सकते हैं। न किसी के पास धैर्य है सुनने का न किसी के पास सहनशक्ति है आलोचना को बर्दाश्त करने की। जिसे देखो वो कुएं का मेढ़क बना हुआ है; दिन-रात वही टर्र-टर्र। कितना शाब्दिक जहर भरा है लोगों के दिलो-दिमाग में कि पढ़कर कोफ्त होती है।
इससे तो कहीं बेहतर और सभ्य हम सोशल मीडिया के आने से पहले थे। तब हमारे दिमागों और दिलों में इतना जहर तो नहीं भरा था। तब हम आपस में बहस भी करते थे, लड़ते भी थे, बुरा-भला भी कहते थे मगर शालीनताएं फिर भी साथ थीं। तब दंगों पर राजनीति नेता या पार्टियां करती थीं। लेकिन अब आलम यह है कि सोशल मीडिया पर जमा हर व्यक्ति दंगों पर न सिर्फ राजनीति कर रहा है बल्कि हिंसक तस्वीरों और वीडियो से भड़का भी रहा है। क्या एक सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश में इसे उचित कहा या माना जाएगा? नहीं, कभी नहीं। उस व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं, जो बिगड़ैल बोलों से जनमानस को भड़काए। पर दुखद है, इन दिनों यही हो रहा है। दुख तब अधिक होता है, जब खुद को लिबरल कहने वाले भी शब्द और भाषाई मर्यादा की परवाह नहीं करते। वे विचार और विचारधारा की बात तो करते हैं किंतु स्वयं उसका ध्यान नहीं रखते।
मुझे लगता है, हममें से हर एक ने अपनी बुद्धि को सांप्रदायिक लोगों के पास गिरवी रख दिया है। खुद अपनी अक्ल से काम लेना बंद कर दिया है। जो नेता कह-बोल रहा है, उसे ही पत्थर की लकीर मान लिया है। कैसे, आखिर कैसे हम सोशल मीडिया पर लिखी और फैलाई जा रही हर बात को सच मान सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम मारपीट और हिंसा का समर्थन कर सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम जलती दुकानों, जलते घरों और जलते शहर को देखकर खुश हो सकते हैं? मत भूलिए, हम इंसान हैं जानवर नहीं। क्या इंसानियत नाम की कोई चीज हममें अब बाकी नहीं रह गई है! क्या हम भी उसी भेड़चाल का हिस्सा हो गए हैं! क्या देश की भी हमें अब कोई परवाह नहीं!
चौबीस घंटे सोशल मीडिया और टीवी पर चलने वाली इस हिंसा को मैं नहीं देख सकता। एक मैं ही नहीं मुझ जैसा हर वो शख्स यह सब नहीं देखना चाहेगा, जो अपने दिल में इंसान, समाज और देश के प्रति प्यार और संवेदनशीलता रखता है। न केवल सोशल मीडिया बल्कि समाज में व्याप्त इस हिंसा को हमें रोकना ही होगा। नहीं तो हमारा देश और समाज बिखर जाएगा। इसका लोकतांत्रिक तानाबाना गड़बड़ा जाएगा। ध्वस्त हो जाएंगे वो मूल्य जो कभी हमारे पूर्वजों ने केभी स्थापित किए थे। फिर, आगे आने वाली पीढ़ी को हम क्या देंगे! उसे क्या बताएंगे कि हम कैसे और किस हद तक साम्प्रदायिक हैं!
सोशल मीडिया को इतना हिंसक मत बनाइए कि मेरे जैसे संवेदनशील इंसान यहां से खुद को हमेशा के लिए दूर रखने के बारे में सोचने लगें। असहमति, आलोचना और विरोध दर्ज करवाइए पर भाषाई दायरे में रहकर। खुद में और जानवर इतना तो फर्क हमें रखना ही होगा। नहीं क्या?
No comments:
Post a Comment