Friday, February 28, 2020

बांटिए नहीं, बांटने से बचाइए देश को

वो दरअसल सब जानते हैं कि वो क्या कर रहे हैं। देश में साम्प्रदायिक आग की भट्टी जलाकर 'शांति' की अपील कर रहे हैं। खुद को सेक्युलर घोषित कर रहे हैं। लेकिन हम क्या करेंगे उनके सेक्युलरिज्म का? ऐसा सेक्युलरिज्म भला किस काम का जो देश को बांटे। दिलों में नफरत की दीवारें पैदा करे। नहीं, ऐसा सेक्युलरिज्म नहीं चाहिए।

और यह सब दिल्ली में तब हो रहा है, जब हम एक विदेशी मेहमान (अमेरिकी राष्ट्रपति) के साथ थे। वाह! विदेशी मेहमान को भी हमने आखिर बता ही दिया कि स्वभाव में हम कितने 'उद्दंड' और कितने 'अराजक' हैं। हालांकि परंपरा तो हमारी मेहमान के स्वागत-सत्कार की रही है लेकिन हमने तो इसका उल्टा उदाहरण पेश किया। क्या सोच और लिख रहा होगा विदेशी मीडिया हमारे बारे में। यहां के लोगों के बारे में। यहां की कथित महान परंपरा के बारे में। खुद उस मेहमान ने भी क्या सोचा होगा!

किंतु इस सब से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो दरअसल अपने एजेंडे 'कामयाब' हुए। उन्हें लोगों के दिलों में नफरत के बीज बोने थे, बो दिए। देश की राजधानी को दंगे और आग के हवाले कर दिया। उनका काम हो गया। अब वे उन दंगों और आग पर कभी सरकार तो कभी प्रधानमंत्री से जवाब मांगेंगे। जबान जब भी खोलेंगे जहर ही उगलेंगे। उन्हें न चिंता देश की है। न आम नागरिक की। न लोकतंत्र की। न संविधान की। न जल चुके घरों की। न तबाह कर दी गईं दुकानों की। वे तो लगे हुए हैं सेक्युलरिज्म के नाम पर नफरत की रोटियां सेंकने में। शायद वे भीतर ही भीतर खुश भी होंगे!

उधर जो आग सोशल मीडिया के बहाने लगाई जा रही है, वो तो और भी विकट है। कभी अराजक तस्वीरों, कभी हिंसक वीडियो शेयर करना क्या देश में भड़काऊ संदेश नहीं देता। जबकि ऐसे समय में ऐसी चीजों से साफ बचा जाना चाहिए। लोगों के बीच शांति का संदेश देना चाहिए। आग को भड़कने से रोकना चाहिए। यह देश किसी एक का नहीं, हम सब का है। अगर हम ही देश की भद्द पिटवाने को तैयार बैठे रहेंगे तो कोई भी विदेशी मुल्क इसका फायदा उठाएगा ही।

सब कुछ 'विरोध' की आड़ में हो रहा है। लेकिन उन भोले (!) लोगों को यह मालूम ही नहीं कि विरोध का कारण क्या है! उन्हें तो बस एक चीज बता और समझा दी गई है कि तुम्हें विरोध करना है। धरना-प्रदर्शन करना है। सड़क को घेरे रहना है। पत्थरबाजी करनी है। निहत्थों पर वार करना है। सो, वो कर रहे हैं। सब समझ की कमी है। और उसी कमी का फायदा देश को तोड़ और बांटकर उठाया जा रहा है। यह दुखद है।

हिंसा कभी इस देश के स्वभाव में नहीं रही। हम वो मुल्क हैं, जो सदा ही शांति का संदेश देते चले आए हैं। हर जात, हर धर्म के लोग यहां रहते हैं। एक-दूसरे के प्रति दिलों में नफरत नहीं अपनापन और भाईचारा रखते हैं। लेकिन यह एका और भाईचारा उन लोगों की आंखों में खटकता है, जिनकी फितरत ही बांटने की रही है। वो नहीं चाहते कि भारत का लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहे। भारत का सिर गर्व से ऊंचा रहे।

मत भूलिए, यह देश एक बहुत बड़े बंटवारे को सालों पहले झेल चुका है। जिसकी टिस अब भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इसे दोबारा न बांटिए। यह जैसा भी है हम सब का मुल्क है। और बहुत ही प्यारा मुल्क है। हमारी जिम्मेदारी है यह मुल्क। हमारी जिम्मेदारी है यहां का हर बाशिंदा। हम ही जब अपने देश के दुश्मन हो जाएंगे तब पड़ोसी तो खिल्ली उड़ाएगा ही। आग से न खेलिए। दहशत न फैलाइए। अगर किसी मुद्दे पर असहमति है तो मिल-बैठकर उसका हल निकालिए हिंसा को अपने हाथों में लिए बिना।

थोड़ा लिबरल बुद्धिजीवियों को भी यह सोचना और समझना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर संयम बरतें। साथ ही, उन्हें भी खुद पर संयम बरतना चाहिए जो बात-बेबात राष्ट्रवाद का झंडा लेकर निकल पड़ते हैं।

बाहर से आकर कोई नहीं बचाएगा, यह हमारा देश है इसे हमें ही बचाना होगा। बांटने का नहीं, शांति का संदेश देना होगा हमें ही अपनों के बीच।

Monday, February 24, 2020

हाशिए पर खिसकता वामपंथ

वाम तबका, इन दिनों, गहरे राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक 'संकट' से जूझ रहा है। न उसके पास अब कुछ पाने को न खोने को। अधर में लटका हुआ है और हर वक़्त इस संघर्ष में जुटा है कि वापसी कैसे की जाए। वापसी के जो तरीके उसने अपनाए हुए हैं, वो उसका साथ नहीं दे रहे। कभी वो 'आप' की शरण में चले जाते हैं तो कभी 'गांधी' और गांधीवाद की। कभी कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते हैं तो कभी समाजवादी पार्टी के साथ। लेकिन जगह और महत्ता उन्हें कहीं नहीं मिल रही। तब उनके पास ग़ालिब की गजल की यह पंक्ति गुनगुनाने के सिवाय कुछ नहीं होता कि 'बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले…'।

वामपंथी और प्रगतिशील वर्ग बड़े जोर-शोर से लगा है, बीजेपी को मात देने में। कभी उसके निशाने पर प्रधानमंत्री होते हैं तो कभी आरएसएस तो कभी राष्ट्रवाद का मुद्दा। लेकिन बिगाड़ अभी तक वो किसी का कुछ नहीं पाया है। भिन्न-भिन्न मुद्दों पर घेरता तो जरूर है वो सरकार को पर बात बन नहीं पाती। मुद्दा चाहे सीएए का हो या एनआरसी का; वामपंथियों की कोशिश रहती है कि वे अपने कथित विरोध के दम पर सरकार को झुका पाएं लेकिन सरकार ने भी ठान ली है कि वो झुकेगी नहीं। अब तो बात शाहीन बाग के धरना-प्रदर्शन से भी नहीं बन पा रही। शाहीन बाग वामपंथियों के लिए 'क्रांतिकारी स्थल' सा नजर आने लगा है।

वाम दल कभी 'विचार' के लिए जाने जाते थे। प्रगतिशील मूल्यों के मालिक और रखवाले हुआ करते थे। जनपक्षधरता की ऊंची बातें किया करते थे। पूंजीवाद और अमेरिका के जबरदस्त विरोधी हुआ करते थे। समाज में बदलाव लाना तो चाहते थे परंतु मार्क्स और लेनिन की 'विचारधारा' से बाहर कभी नहीं निकल पाए। लेकिन इधर कुछ एक सालों में वामपंथियों ने ऐसी पलटी खाई है कि वे आजकल गांधी की शरण में हैं। हर ऊंचे से ऊंचे वामपंथी की जुबान पर भगत सिंह, मार्क्स, लेनिन, एम एन राय आदि का नाम न होकर सिर्फ गांधी का ही नाम है। अचानक से गांधी के प्रति इतना 'प्रेम' कैसे उमड़ आया उनके दिलों में यह थोड़ा आश्चर्य में डालता है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 'गांधी प्रेम' के चक्कर में वामपंथियों ने अपने नायकों को ही 'हाशिए' पर धकेल दिया? उन्हें न अब जरूरत मार्क्स की है न लेनिन की और न ही 'दास कैपिटल' की! रही बात पूंजीवाद के विरोध की है तो अब यह भी बेमानी-सा लगने लगा है। क्योंकि जिस कथित विरोध के लिए वे जिन प्लेटफॉर्म (यथा- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप) को अपनाते हैं, ये पूंजीवादी देशों की ही तो देन हैं। फिर तो उनका यह विरोध 'डिजाइनर विरोध' हुआ न!

कभी वामपंथी वर्ग गांधी की विचारधारा का कट्टर विरोधी हुआ करता था। न उसकी आस्था गांधीवाद में थी न स्वदेशी आंदोलन में। लेकिन अब तो वामपंथियों ने गांधी और गांधीवाद को ऐसा अपनाया है कि सच्चा गांधीवादी भी क्या अपनाएगा! अब उसे गांधी की विचारधारा से कोई परहेज नहीं। दरअसल, वामपंथियों की यह कथित 'गांधी-भक्ति' बीजेपी की काट के लिए है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखो, जितना बीजेपी गांधी प्रेमी है उससे कहीं बड़े गांधी प्रेमी हम हैं। न सिर्फ गांधी उन्होंने तो अंबेडकर भी अब बहुत प्रिय लगने लगे हैं।

न न इसे वामपंथियों का 'ह्रदय-परिवर्तन' मत समझिएगा। यह तो उनकी कोशिश है बीजेपी के गढ़ में अपने झंडे गाड़ने की। किंतु इस कोशिश में कामयाबी उन्हें मिलेगी, जरा मुश्किल लगता है।

इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से वे 'आप' और केजरीवाल के भी जबरदस्त 'फैन' हो गए हैं। उन्हें 'आप' की जीत में अपनी वैचारिक और राजनीतिक जीत दिखाई पड़ रही है। यानी- 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।' यदाकदा मंचों से वे 'आप' की तारीफ भी खुलकर करने लगे हैं। उन्हें 'आप' के विकास में देश का विकास नजर आने लगा है। जबकि हकीकत यह है कि 'गांधी' और 'आप' वामपंथियों की 'मजबूरी' हैं। क्योंकि उनका खुद का जनाधार जनता के बीच अब बचा नहीं है। वे न केवल वैचारिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी 'ध्वस्त' हो चुके हैं।

कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वाम तबके का इतना और इस कदर 'वैचारिक पतन' होगा। खुद को ही वे हाशिए पर धकेल लेंगे। आज साहित्य में भी उनकी वही स्तिथि है, जो राजनीति में है। एक दायरे में सिमट कर रह गया है वामपंथी वर्ग हर कहीं।

सरकार की आलोचना कीजिए। खूब कीजिए। लोकतंत्र आपको यह अधिकार देता है। लेकिन विरोध में इतने अंधे भी न हो जाइए कि देश के खिलाफ नारे लगाने वालों के साथ खड़े होने लगें। यह देश किसी एक पार्टी, किसी एक प्रधानमंत्री का नहीं हम सबका है।

वामपंथियों को अगर मुख्यधारा में आना है तो खुद को बदलना होगा। उसे यह तय करना होगा कि वो गांधी के साथ है या मार्क्स के! दो नाव पर पैर रखकर नदी पार नहीं की जा सकती।

अब तो यह खबर भी पढ़ने में आई है कि वामपंथी पार्टी ने ईश्वर की शरण में जाने का भी मन बना लिया है। अगर ऐसा है तो उसकी उन धर्म और ईश्वर विरोधी स्थापनाओं का क्या होगा, जो कभी उनके विचार और किताबों में दर्ज रहा करती थीं! तो क्या हम यह मान लें कि वाम वर्ग धार्मिक आस्थाओं के सहारे वापसी करने के मूड में है! अगर ऐसा है तो इस पर क्या कहिए!