वाम तबका, इन दिनों, गहरे राजनीतिक, साहित्यिक और सामाजिक 'संकट' से जूझ रहा है। न उसके पास अब कुछ पाने को न खोने को। अधर में लटका हुआ है और हर वक़्त इस संघर्ष में जुटा है कि वापसी कैसे की जाए। वापसी के जो तरीके उसने अपनाए हुए हैं, वो उसका साथ नहीं दे रहे। कभी वो 'आप' की शरण में चले जाते हैं तो कभी 'गांधी' और गांधीवाद की। कभी कांग्रेस के साथ खड़े हो जाते हैं तो कभी समाजवादी पार्टी के साथ। लेकिन जगह और महत्ता उन्हें कहीं नहीं मिल रही। तब उनके पास ग़ालिब की गजल की यह पंक्ति गुनगुनाने के सिवाय कुछ नहीं होता कि 'बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले…'।
वामपंथी और प्रगतिशील वर्ग बड़े जोर-शोर से लगा है, बीजेपी को मात देने में। कभी उसके निशाने पर प्रधानमंत्री होते हैं तो कभी आरएसएस तो कभी राष्ट्रवाद का मुद्दा। लेकिन बिगाड़ अभी तक वो किसी का कुछ नहीं पाया है। भिन्न-भिन्न मुद्दों पर घेरता तो जरूर है वो सरकार को पर बात बन नहीं पाती। मुद्दा चाहे सीएए का हो या एनआरसी का; वामपंथियों की कोशिश रहती है कि वे अपने कथित विरोध के दम पर सरकार को झुका पाएं लेकिन सरकार ने भी ठान ली है कि वो झुकेगी नहीं। अब तो बात शाहीन बाग के धरना-प्रदर्शन से भी नहीं बन पा रही। शाहीन बाग वामपंथियों के लिए 'क्रांतिकारी स्थल' सा नजर आने लगा है।
वाम दल कभी 'विचार' के लिए जाने जाते थे। प्रगतिशील मूल्यों के मालिक और रखवाले हुआ करते थे। जनपक्षधरता की ऊंची बातें किया करते थे। पूंजीवाद और अमेरिका के जबरदस्त विरोधी हुआ करते थे। समाज में बदलाव लाना तो चाहते थे परंतु मार्क्स और लेनिन की 'विचारधारा' से बाहर कभी नहीं निकल पाए। लेकिन इधर कुछ एक सालों में वामपंथियों ने ऐसी पलटी खाई है कि वे आजकल गांधी की शरण में हैं। हर ऊंचे से ऊंचे वामपंथी की जुबान पर भगत सिंह, मार्क्स, लेनिन, एम एन राय आदि का नाम न होकर सिर्फ गांधी का ही नाम है। अचानक से गांधी के प्रति इतना 'प्रेम' कैसे उमड़ आया उनके दिलों में यह थोड़ा आश्चर्य में डालता है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 'गांधी प्रेम' के चक्कर में वामपंथियों ने अपने नायकों को ही 'हाशिए' पर धकेल दिया? उन्हें न अब जरूरत मार्क्स की है न लेनिन की और न ही 'दास कैपिटल' की! रही बात पूंजीवाद के विरोध की है तो अब यह भी बेमानी-सा लगने लगा है। क्योंकि जिस कथित विरोध के लिए वे जिन प्लेटफॉर्म (यथा- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप) को अपनाते हैं, ये पूंजीवादी देशों की ही तो देन हैं। फिर तो उनका यह विरोध 'डिजाइनर विरोध' हुआ न!
कभी वामपंथी वर्ग गांधी की विचारधारा का कट्टर विरोधी हुआ करता था। न उसकी आस्था गांधीवाद में थी न स्वदेशी आंदोलन में। लेकिन अब तो वामपंथियों ने गांधी और गांधीवाद को ऐसा अपनाया है कि सच्चा गांधीवादी भी क्या अपनाएगा! अब उसे गांधी की विचारधारा से कोई परहेज नहीं। दरअसल, वामपंथियों की यह कथित 'गांधी-भक्ति' बीजेपी की काट के लिए है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखो, जितना बीजेपी गांधी प्रेमी है उससे कहीं बड़े गांधी प्रेमी हम हैं। न सिर्फ गांधी उन्होंने तो अंबेडकर भी अब बहुत प्रिय लगने लगे हैं।
न न इसे वामपंथियों का 'ह्रदय-परिवर्तन' मत समझिएगा। यह तो उनकी कोशिश है बीजेपी के गढ़ में अपने झंडे गाड़ने की। किंतु इस कोशिश में कामयाबी उन्हें मिलेगी, जरा मुश्किल लगता है।
इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से वे 'आप' और केजरीवाल के भी जबरदस्त 'फैन' हो गए हैं। उन्हें 'आप' की जीत में अपनी वैचारिक और राजनीतिक जीत दिखाई पड़ रही है। यानी- 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।' यदाकदा मंचों से वे 'आप' की तारीफ भी खुलकर करने लगे हैं। उन्हें 'आप' के विकास में देश का विकास नजर आने लगा है। जबकि हकीकत यह है कि 'गांधी' और 'आप' वामपंथियों की 'मजबूरी' हैं। क्योंकि उनका खुद का जनाधार जनता के बीच अब बचा नहीं है। वे न केवल वैचारिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी 'ध्वस्त' हो चुके हैं।
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वाम तबके का इतना और इस कदर 'वैचारिक पतन' होगा। खुद को ही वे हाशिए पर धकेल लेंगे। आज साहित्य में भी उनकी वही स्तिथि है, जो राजनीति में है। एक दायरे में सिमट कर रह गया है वामपंथी वर्ग हर कहीं।
सरकार की आलोचना कीजिए। खूब कीजिए। लोकतंत्र आपको यह अधिकार देता है। लेकिन विरोध में इतने अंधे भी न हो जाइए कि देश के खिलाफ नारे लगाने वालों के साथ खड़े होने लगें। यह देश किसी एक पार्टी, किसी एक प्रधानमंत्री का नहीं हम सबका है।
वामपंथियों को अगर मुख्यधारा में आना है तो खुद को बदलना होगा। उसे यह तय करना होगा कि वो गांधी के साथ है या मार्क्स के! दो नाव पर पैर रखकर नदी पार नहीं की जा सकती।
अब तो यह खबर भी पढ़ने में आई है कि वामपंथी पार्टी ने ईश्वर की शरण में जाने का भी मन बना लिया है। अगर ऐसा है तो उसकी उन धर्म और ईश्वर विरोधी स्थापनाओं का क्या होगा, जो कभी उनके विचार और किताबों में दर्ज रहा करती थीं! तो क्या हम यह मान लें कि वाम वर्ग धार्मिक आस्थाओं के सहारे वापसी करने के मूड में है! अगर ऐसा है तो इस पर क्या कहिए!
वामपंथी और प्रगतिशील वर्ग बड़े जोर-शोर से लगा है, बीजेपी को मात देने में। कभी उसके निशाने पर प्रधानमंत्री होते हैं तो कभी आरएसएस तो कभी राष्ट्रवाद का मुद्दा। लेकिन बिगाड़ अभी तक वो किसी का कुछ नहीं पाया है। भिन्न-भिन्न मुद्दों पर घेरता तो जरूर है वो सरकार को पर बात बन नहीं पाती। मुद्दा चाहे सीएए का हो या एनआरसी का; वामपंथियों की कोशिश रहती है कि वे अपने कथित विरोध के दम पर सरकार को झुका पाएं लेकिन सरकार ने भी ठान ली है कि वो झुकेगी नहीं। अब तो बात शाहीन बाग के धरना-प्रदर्शन से भी नहीं बन पा रही। शाहीन बाग वामपंथियों के लिए 'क्रांतिकारी स्थल' सा नजर आने लगा है।
वाम दल कभी 'विचार' के लिए जाने जाते थे। प्रगतिशील मूल्यों के मालिक और रखवाले हुआ करते थे। जनपक्षधरता की ऊंची बातें किया करते थे। पूंजीवाद और अमेरिका के जबरदस्त विरोधी हुआ करते थे। समाज में बदलाव लाना तो चाहते थे परंतु मार्क्स और लेनिन की 'विचारधारा' से बाहर कभी नहीं निकल पाए। लेकिन इधर कुछ एक सालों में वामपंथियों ने ऐसी पलटी खाई है कि वे आजकल गांधी की शरण में हैं। हर ऊंचे से ऊंचे वामपंथी की जुबान पर भगत सिंह, मार्क्स, लेनिन, एम एन राय आदि का नाम न होकर सिर्फ गांधी का ही नाम है। अचानक से गांधी के प्रति इतना 'प्रेम' कैसे उमड़ आया उनके दिलों में यह थोड़ा आश्चर्य में डालता है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 'गांधी प्रेम' के चक्कर में वामपंथियों ने अपने नायकों को ही 'हाशिए' पर धकेल दिया? उन्हें न अब जरूरत मार्क्स की है न लेनिन की और न ही 'दास कैपिटल' की! रही बात पूंजीवाद के विरोध की है तो अब यह भी बेमानी-सा लगने लगा है। क्योंकि जिस कथित विरोध के लिए वे जिन प्लेटफॉर्म (यथा- फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप) को अपनाते हैं, ये पूंजीवादी देशों की ही तो देन हैं। फिर तो उनका यह विरोध 'डिजाइनर विरोध' हुआ न!
कभी वामपंथी वर्ग गांधी की विचारधारा का कट्टर विरोधी हुआ करता था। न उसकी आस्था गांधीवाद में थी न स्वदेशी आंदोलन में। लेकिन अब तो वामपंथियों ने गांधी और गांधीवाद को ऐसा अपनाया है कि सच्चा गांधीवादी भी क्या अपनाएगा! अब उसे गांधी की विचारधारा से कोई परहेज नहीं। दरअसल, वामपंथियों की यह कथित 'गांधी-भक्ति' बीजेपी की काट के लिए है। वे यह दिखाना चाहते हैं कि देखो, जितना बीजेपी गांधी प्रेमी है उससे कहीं बड़े गांधी प्रेमी हम हैं। न सिर्फ गांधी उन्होंने तो अंबेडकर भी अब बहुत प्रिय लगने लगे हैं।
न न इसे वामपंथियों का 'ह्रदय-परिवर्तन' मत समझिएगा। यह तो उनकी कोशिश है बीजेपी के गढ़ में अपने झंडे गाड़ने की। किंतु इस कोशिश में कामयाबी उन्हें मिलेगी, जरा मुश्किल लगता है।
इधर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से वे 'आप' और केजरीवाल के भी जबरदस्त 'फैन' हो गए हैं। उन्हें 'आप' की जीत में अपनी वैचारिक और राजनीतिक जीत दिखाई पड़ रही है। यानी- 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।' यदाकदा मंचों से वे 'आप' की तारीफ भी खुलकर करने लगे हैं। उन्हें 'आप' के विकास में देश का विकास नजर आने लगा है। जबकि हकीकत यह है कि 'गांधी' और 'आप' वामपंथियों की 'मजबूरी' हैं। क्योंकि उनका खुद का जनाधार जनता के बीच अब बचा नहीं है। वे न केवल वैचारिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी 'ध्वस्त' हो चुके हैं।
कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वाम तबके का इतना और इस कदर 'वैचारिक पतन' होगा। खुद को ही वे हाशिए पर धकेल लेंगे। आज साहित्य में भी उनकी वही स्तिथि है, जो राजनीति में है। एक दायरे में सिमट कर रह गया है वामपंथी वर्ग हर कहीं।
सरकार की आलोचना कीजिए। खूब कीजिए। लोकतंत्र आपको यह अधिकार देता है। लेकिन विरोध में इतने अंधे भी न हो जाइए कि देश के खिलाफ नारे लगाने वालों के साथ खड़े होने लगें। यह देश किसी एक पार्टी, किसी एक प्रधानमंत्री का नहीं हम सबका है।
वामपंथियों को अगर मुख्यधारा में आना है तो खुद को बदलना होगा। उसे यह तय करना होगा कि वो गांधी के साथ है या मार्क्स के! दो नाव पर पैर रखकर नदी पार नहीं की जा सकती।
अब तो यह खबर भी पढ़ने में आई है कि वामपंथी पार्टी ने ईश्वर की शरण में जाने का भी मन बना लिया है। अगर ऐसा है तो उसकी उन धर्म और ईश्वर विरोधी स्थापनाओं का क्या होगा, जो कभी उनके विचार और किताबों में दर्ज रहा करती थीं! तो क्या हम यह मान लें कि वाम वर्ग धार्मिक आस्थाओं के सहारे वापसी करने के मूड में है! अगर ऐसा है तो इस पर क्या कहिए!
No comments:
Post a Comment