Thursday, October 10, 2019

बाजार और त्योहार

त्योहार सिर पर हैं। ऑनलाइन बाजार तैयार है। सेल लगी हुई है। जमकर डिस्काउंट दिया जा रहा है। टीवी और अखबारों में आने वाला हर विज्ञापन कह रहा है कि खरीदो, खरीदो। मौका हाथ से न जाने दो। इस दफा चूके तो उम्र भर पछताओगे।

सबसे सस्ते की परिभाषा क्या होती है, यह बाजार हमें समझा रहा है। बाजार भी यह चाहता है कि हम त्योहार को छोड़ खरीददारी और सेल के बीच ही उलझे रहें। एक से बढ़कर एक ऑफर्स हैं। सबकुछ जीरो ईएमआई पर उपलब्ध है। हर सामान अपनी जेब के मुताबिक।

बाजार और त्योहार को मोबाइल आपस में जोड़े हुए है। टचस्क्रीन पर लगातार दौड़ती उंगलियां मानो कुछ भी छोड़ना नहीं चाहतीं। मोबाइल पर ही सारी ऑनलाइन खरीददारी हो रही है। इसी पर एक-दूसरे को त्योहार की बधाईयां भी दी जा रही हैं।

न कहीं बाहर आना है न जाना। घर बैठे जो चाहो खरीदो। किसी को भी विश करो। फ्री डेटा और अनलिमिटेड कॉल के युग में हर रिश्ता करीब जान पड़ता है।

ऑनलाइन बाजार बहुत कम समय में बहुत तेजी से हमारी जरूरत बन गया है। त्योहार की परिभाषा-भाषा ही बदलकर रख दी है इसने। आजकल के बच्चे त्योहार का मतलब सिर्फ खरीददारी ही समझते हैं। त्यौहारों का हमारे जीवन में क्या अर्थ, क्या महत्त्व है उन्हें नहीं पता। दोष उनका भी कहां है? खुद हमीं ने कहां उन्हें ये सब बताने का कभी प्रयास किया। जैसे हम दिनभर मोबाइल और ऑनलाइन बाजार में उलझे रहते हैं, बच्चे भी यही सीख रहे हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब त्योहारों पर लगता था कि त्यौहार हैं। सब एक साथ एक-दूसरे से मिलते थे। त्योहारों की परंपरा का ध्यान रखा जाता था। उन्हें उत्सव की तरह मनाया जाता था। तब बाजार का भी हम पर ऐसा प्रभाव नहीं था। मां-बाप जो खरीदकर दे देते थे, खुशी-खुशी पहन लेते थे। किसी के बीच स्मार्ट लगने-दिखने की कोई हिरस नहीं थी।

तब बाजार और कपड़ों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण त्योहार हुआ करते थे। अब त्योहारों पर लोगों को देखो तो ऐसा लगता है कि किसी फैशन परेड का हिस्सा बनने आए हैं। अब ये खबरें चौकाती भी नहीं कि किसी बड़ी कंपनी के कुछ घण्टों में हजारों मोबाइल बिक गए।

हां, यह सच है कि ऑनलाइन बाजार ने बाजार और खरीददारी को हमारे लिए बेहद आसान कर दिया है। अब कुछ भी खरीदने के लिए सड़कों या दुकानों पर भटकना नहीं पड़ता। एक क्लिक में हर चीज घर बैठे आपके सामने होती है। सेल और डिस्काउंट का नशा अलग ही होता है।

जिसके पास समय की कमी है, वो भला क्यों बाजार में जाकर धक्के खाएगा। यह होड़ भी हमारे बीच खूब चली है कि जब पड़ोसी ऑनलाइन चीज खरीद सकता है तो मैं क्यों नहीं? मोबाइल पर उंगलियां या तो सन्देश भेजने के लिए चलती हैं या फिर खरीदने के लिए।

ऑनलाइन बाजार के बढ़ते प्रभाव ने दशहरा, दिवाली जैसे त्योहारों की प्रासंगिकता को बहुत हद तक नुकसान पहुंचाया है। अपनों के बीच होकर भी हम उनके बीच नहीं होते। दशहरा, दीवाली का क्या महत्त्व है, बच्चे उतना ही जानते-समझते हैं, जितना उन्होंने अपने कोर्स की किताबों में पढ़ रखा होता है।

हमने अपना सारा सोशल सर्कल समाज के बीच से हटाकर सोशल मीडिया पर शिफ्ट कर दिया है। सारी सामाजिकताएं वहीं निभाई जा रही हैं। सारे सुख-दुख इसी पर बांटे जा रहे हैं।

आलम यह है कि त्योहार आ रहे हैं ऐसा कुछ हमें अहसास ही नहीं होता। एक वो दौर था जब हफ्ते भर पहले त्योहारों की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। मगर अब तो सबकुछ रेडीमेड और ऑनलाइन है।

कभी-कभी तो लगता है कि त्योहारों पर कितना खरीदते हैं हम। बाजार ने इतनी बुरी तरह हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उससे बाहर अगर निकलना चाहें तो भी नहीं निकल सकते। खरीददारी का ऐसा जाल बुना जे बाजार ने हमारे इर्द-गिर्द कि कितना बचेंगे।

हम दूसरों से ही नहीं, खुद अपने आप से कटते जा रहे हैं। इतना सीमित कर लिया है हमने अपनी जिंदगी को कि जहां उत्सव और त्योहार भी अब ज्यादा मायने नहीं रखते।

हर त्योहार का मूल स्वभाव आपस में जोड़ना, उमंग-उत्सव बनाए रखना, व्यस्तताओं से निजात पाना होता है। लेकिन हमने तो खुद को बाजार के हवाले कर दिया है। बाजार आकर्षक दे सकता किंतु सुकून नहीं दे सकता। रिश्तों में गर्माहट, सरलता, अपनापन नहीं डाल सकता। त्योहार का महत्त्व नहीं बता सकता। दिलों में उमंग का संचार नहीं कर सकता।

बावजूद इसके हमारे मध्य ऑनलाइन बाजार की चकाचौंध निरंतर बढ़ती ही जा रही है। यह कहां जाकर रुकेगी या कभी रुकेगी भी; कोई नहीं जानता। त्योहार आएंगे-जाएंगे मगर बाजार हमें यों ही अपने मोहपाश में बांधे रहेगा। क्या करें, हमारा व्यवहार और दिमाग कुछ इस तरह का विकसित हो चुका है, जहां बाजार ही सबकुछ है, रिश्ते नहीं।

बीते वक़्त का एक नॉस्टेल्जिया ही हम अपने मन में पाल सकते हैं। सच यही है कि न वो वक़्त और न वो त्योहारों की तासीर ही वापस लौटेगी। बाजार और त्योहार के बीच एक-दूसरे को लुभाने की कोशिशें आगे भी ऐसे ही जारी रहेंगी।

Friday, October 4, 2019

बेकाबू होता सोशल मीडिया

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सोशल मीडिया (जैसे- फेसबुक, व्हाट्सएप) पर नकेल कसने को कहा है। और, कुछ गलत नहीं कहा है। अब वाकई समय आ गया है, जब केंद्र सरकार सोशल मीडिया के खिलाफ कोई सख्त निर्णय ले।

माना कि सोशल मीडिया स्वतंत्र अभिव्यक्ति का एक बड़ा माध्यम है। यहां कोई भी अपनी बात खुलकर कह-लिख सकता है। दोस्त बना सकता है। फ़ोटो शेयर कर सकता है। हर विषय पर स्टेटस चढ़ा सकता है। लेकिन, यहां किसी को ट्रोल करने या अभद्र भाषा का प्रयोग करने का हक किसी को नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की चिंता भी यही है। एक जज ने तो सोशल मीडिया को इतना खतरनाक बताया कि यहां से वे आधे घंटे में एके-47 भी खरीद सकते हैं।

ट्रोलिंग सोशल मीडिया का सबसे घृणित पक्ष है। आप सरकार या किसी व्यक्ति के विरुद्ध असहमति जतला दीजिए, फिर देखिए आपको यहां कैसे और किस हद तक ट्रोल किया जाता है। ट्रोलिंग में अभद्र भाषा का जिस तरह प्रयोग किया जाता है, उसे किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा-माना जा सकता।

अभी हाल मशहूर अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा को, केबीसी में एक सवाल का उत्तर सही न दे पाने के कारण, जिस तरह फेसबुक और ट्विटर पर ट्रोल किया गया, वो बहुत ही दुखद था। कोई जरूरी तो नहीं सबको हर विषय का ज्ञान हो ही। कभी-कभी बहुत ही साधारण से सवाल पर हम भी चूक जाते हैं। कई पढ़े-लिखे लोग ऐसे भी देखे गए हैं, जिन्हें हिंदी का क ख ग तक नहीं आता था। तो क्या हम उन्हें ट्रोल करने बैठ जाएंगे। सुबह-शाम सोशल मीडिया पर उनका मख़ौल उड़ाएंगे। उन्हें तरह-तरह के ताने देंगे। उनके विरुद्ध दुष्प्रचार करेंगे।

कहना न होगा, सोशल मीडिया पर सबसे अधिक प्रताड़ित महिलाओं को किया जाता है। उन पर तरह-तरह की टिप्पणियां की जाती हैं, मीम बनाए जाते हैं, उनके खिलाफ भद्दी भाषा का प्रयोग किया जाता है। वीडियो बनाकर उनका दुष्प्रचार किया जाता है। इस सब पर लगाम कसना बेहद जरूरी है।

कभी-कभी तो सोशल मीडिया 'बंदर के हाथ में उस्तरा' जैसा आभास देता है। किसी की भी गर्दन पर वार करने को तैयार।

सबसे ज्यादा शिकायत यहां भाषा को लेकर है। शर्म तब अधिक आती है, जब पढ़ा-लिखा वर्ग भी किसी के खिलाफ नीच भाषा का इस्तेमाल करता है। खुलेआम गालियां बकता है। ऐसा लगता है, टिप्पणी करने की जल्दबाजी में हमने अपनी भाषा पर ठहरकर सोचना बिल्कुल छोड़ ही दिया है। जरा-सी आलोचना पर ही ऐसे आपे से बाहर हो जाते हैं कि कुछ पूछिए मत। हद यह है कि व्यक्ति के खिलाफ निजी (अश्लील) टिप्पणी करने से भी नहीं चूकते।

सोशल मीडिया लत से कहीं ज्यादा बीमारी बनता जा रहा है। हर समय निगाहें फोन पर टिकी रहती हैं। उंगलियां टच-स्क्रीन पर रपटती रहती हैं। न हम आपस में किसी से मिलते हैं, न दो घड़ी बैठकर हाल-चाल लेते हैं। दुख-सुख भी फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही शेयर कर फर्ज अदायगी कर देते हैं। खाना खाते वक़्त भी निगाहें मोबाइल से दूर नहीं रह पातीं। आखिर यह सब क्या है? कहां लिए जा रहे हैं हम अपने आप को?

अक्सर लगता है, हम मोबाइल को नहीं, मोबाइल हमें चला रहा है। हमारा इस्तेमाल कर रहा है।

हत्या और आत्महत्या की घटनाएं जिस तेजी से सामने आ रही हैं, ये संकेत भी सुखद नहीं हैं सोशल मीडिया के लिए। कैसे-कैसे लोग हैं, जो अपनी आत्महत्या का वीडियो खुद ही यहां वायरल कर देते हैं। फिर उन वीडियो पर आने वाले कमेंट तो और भी अभद्र होते हैं। कुछ लोगों को ट्रोलिंग का सामान मिल जाता है।

वैसे, सोशल मीडिया (खासकर- फेसबुक और ट्विटर) को आधार से जोड़ने का प्रस्ताव भी बुरा नहीं। इससे कुछ हद तक तो लगाम लगेगी ही। फेक एकाउंट्स और खबरों में भी थोड़ी कमी आएगी। वरना तो होता यह है कि कैसी भी उल्टी खबर को सही बनाकर वायरल कर दिया जाता है। यह कहना गलत न होगा कि सोशल मीडिया पर 80 फीसद खबरें फेक ही होती हैं। कई दफा तो समझदार लोग भी उन फेक खबरों को सही मान साझा कर देते हैं।

समाज में कितने ही फसाद फेक न्यूज के कारण भड़के हैं। पिछले दिनों भीड़ द्वारा हिंसा में जो बढ़ोतरी हुई उनमें फेक न्यूज़ का बहुत बड़ा हाथ है। कुछ ही मिनट में किसी भी खबर का वायरल हो जाना, चिंता का सबब बनता जा रहा है। सही और गलत की पहचान होना जरूरी है। नहीं तो बेकसूर लोग बेवजह ही मारे जाते रहेंगे।

इस सब के बावजूद कुछ लोगों ने समझदारी और धैर्य से काम लेते हुए खुद को सोशल मीडिया से दूर भी किया है, निरंतर कर भी रहे हैं। धीरे-धीरे वापस अपनी सामान्य जिंदगी में लौटने लगे हैं। खाली समय किताबों के साथ गुजारने लगे हैं। आपसी रिश्तों-संबंधों को मजबूत कर रहे हैं। न फेक न्यूज़ पर विश्वास करते हैं, न ही उसे शेयर करते हैं। ट्रोलर्स को भी मजा चखाना उन्होंने शुरू कर दिया है। यह सब जरूरी है। नहीं तो हम ट्रोलिंग, फेक न्यूज़, अभद्र भाषा आदि के अंधे कुएं में ही यों ही डूबते चले जायेंगे।

बेहतर तो यही रहेगा कि केंद्र सरकार जितना जल्दी हो सके सोशल मीडिया के खिलाफ सख्त कानून बनाए। ताकि बात-बात पर इसका दुरुपयोग करने वालों पर अच्छे से लगाम कसी जा सके।

सोशल मीडिया की शुरुआत अपनों को नजदीक लाने, अनजान लोगों से मित्रता बढ़ने के लिहाज से की गई थी, नाकि किसी को ट्रोल करने या किसी के खिलाफ दुष्प्रचार करने को। इसके लिए हमें खुद को सुधारा ही होगा।

गांधी को याद करने की होड़

अभी कुछ दिन पहले भगत सिंह को याद कर हम 'मुक्त' हुए ही थे कि अब गांधी को याद करने लग गए। जिधर नजर उठकर देखो उधर ही गांधी को याद किया जा रहा है। गांधी-गांधी की ऐसी धूम मची है अगर गांधी ये सब देख लें तो निश्चित ही शर्मा जाएं। क्या दक्षिणपंथी, क्या वामपंथी, क्या बौद्धिक, क्या अ-बौद्धिक हर कोई गांधी का विशेषज्ञ बनकर उन पर कुछ न कुछ कह-लिख रहा है।

अभी कल तक ही तो भगत सिंह की ओर लौटने, उनकी विचारधारा को अपनाने को कहा जा रहा था, अब गांधी की ओर लौटने और उनके गांधीवाद को अपनाने को कहा जा रहा है। मतलब- अभी हम यही तय नहीं कर पाए हैं कि हमें रहना किस विचारधारा के साथ है। किसे मानना है, किसे छोड़ देना है।

हर तरफ से गांधी को अपने-अपने खेमों में खींचने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसा ही कुछ पिछले दिनों डॉ. अंबेडकर के साथ भी किया गया था। जिन्होंने कभी गांधी जैसा जीवन जिया नहीं, जिनका दिन-रात मोबाइल और सोशल मीडिया पर मटरगश्ती करके गुजरता है, वे भी गांधीवाद पर लेक्चर दे रहे हैं। जिन्होंने शायद ही खुद जीवन में कभी खादी पहनी हो, वे हमसे खादी पहनने-अपनाने को कह रहे हैं। कभी जिन्होंने सादा जीवन नहीं जिया, हमसे सादा जीवन जीने को कह रहे हैं।

अपने महापुरुषों के प्रति हमारे मन में कितना 'नकलीपन' है, इसे हमने अभी हाल भगत सिंह को याद करते हुए देखा और अब गांधी को याद करते हुए साफ देख पा रहे हैं। जबकि सत्य यह है कि सामान्य जीवन में न मतलब हमें गांधी से रहता है न गांधीवाद से। गांधी की तस्वीर के नीचे बैठ हम क्या कुछ नहीं करते। गांधी के सत्य को आत्मसात करने की हिम्मत भी किसी के भीतर नहीं। लंबे-लंबे भाषण चाहे जितना दे लें। इसे ही तो कहने और करने में फर्क कहा जाता है।

हर तरफ एक होड़-सी मची है कि कौन व्यक्ति, कौन नेता, कौन पार्टी, कौन संगठन गांधी को कितना और किस सीमा तक याद कर सकता है। जिन्हें सालभर गांधी से कोई सरोकार नहीं रहता, वे भी उन्हें ऐसे याद कर रहे हैं मानो वे ही उनके सबसे बड़े भक्त हों।

नकली गांधीवाद का चलन हमारे जीवन में इस कदर बढ़ गया है कि जहां देखो उधर ही झोल नजर आता है।

आजकल सबसे ज्यादा बहस चल रही है गांधी और भगत सिंह के बीच व्याप्त वैचारिक मतभेद को लेकर। सोशल मीडिया पर जाने क्या कुछ नहीं लिखा जा रहा। इतिहास की जानकारी किसी को है नहीं लेकिन जिद ऐसी कि हम ही इतिहास के सबसे बड़े जानकर हैं। सोशल मीडिया पर जितनी भी चीजें आ रही हैं सब व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की ईजाद हैं। उनका काम ही रात-दिन तरह-तरह के भरम देश, समाज और लोगों के बीच फैलाना है। कोई भगत सिंह के बरक्स गांधी को खड़ा कर रहा है तो कोई गांधी के बरक्स भगत सिंह को। समाज में इतना दुष्प्रचार फैला दिया गया है कि यह तय कर पाना ही मुश्किल होता जा रहा है कि कौन सही है और कौन गलत।

गांधी और भगत सिंह के बीच मतभेद की सही जानकारी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कभी नहीं दे सकती। ये आपको उन पर लिखी गईं प्रामाणिक किताबों से ही मिल सकती है। क्रांतिकारियों का इतिहास पढ़िए, सबकुछ उनमें दर्ज है।

जब आप गांधी पर बात करते हैं या भगत सिंह पर तब आपको अन्य क्रांतिकारियों पर भी बात करनी पड़ेगी। उन गुमनाम क्रांतिकारियों का इतिहास भी जानना होगा, जिन्होंने देश की खातिर बलिदान दिया। सिर्फ गांधी या भगत सिंह को याद कर लेने भर से ही हम अपने क्रांतिकारी नायकों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।

हो दरअसल आजकल यही रहा है कि हमने गांधी और भगत सिंह पर अपने ज्ञान को सीमित कर लिया है। जो सोशल मीडिया पर आ रहा है, उसे ही 'अंतिम सत्य' मान यहां-वहां प्रचारित किया जा रहा है। ये कच्चे तथ्य और अधिक भ्रम फैला रहे हैं समाज के बीच।

गांधी, गांधीवाद और उनकी राजनीति को समझना इतना सरल नहीं कि एक दिन में विशेषज्ञ बन जाएं। ये सब जानने-समझने के लिए आपको इतिहास के कटु सत्य से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा।

ऐसे जाने कितने ही वैचारिक मतभेद नेहरू और गांधी के बीच भी थे। पर हम उन पर बात या बहस करने से बचते हैं। क्योंकि हमारे अपने-अपने राजनीतिक और साहित्यिक एजेंडे हैं। यहां कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की भूमिका तो और भी अधिक हास्यास्पद लग रही है। वाम बुद्धिजीवियों का गांधी के प्रति प्रेम अचानक से इतना बढ़ गया है कि विश्वास ही नहीं हो रहा। वे गांधी में अपने नायक को तलाश रहे हैं।

गांधी को सिर्फ महिमामंडन की वस्तु न बनाइए। उन पर लिखी गई आलोचना को पढ़ने और आत्मसात करने की भी आदत डालिए। इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहे वो कोई हो। उसके गर्भ में हर एक का सच, झूठ और नकलीपन छिपा रहता है।

ध्यान रखे, गांधी को 'सिर्फ याद' करने की 'होड़' किसी तार्किक मुकाम तक नहीं ले जा पाएगी। जब तक की हम क्रांतिकारी इतिहास की सच्चाईयों से रू-ब-रू नहीं हो जाते।

Monday, August 19, 2019

डायरी

पिछली बरसात में
डायरी के कुछ पन्ने
गीले हो गए थे
पर उस पन्ने को मैंने
गीला होने से बचा लिया था
जिस पर तुम्हारा नाम दर्ज था