अभी कुछ दिन पहले भगत सिंह को याद कर हम 'मुक्त' हुए ही थे कि अब गांधी को याद करने लग गए। जिधर नजर उठकर देखो उधर ही गांधी को याद किया जा रहा है। गांधी-गांधी की ऐसी धूम मची है अगर गांधी ये सब देख लें तो निश्चित ही शर्मा जाएं। क्या दक्षिणपंथी, क्या वामपंथी, क्या बौद्धिक, क्या अ-बौद्धिक हर कोई गांधी का विशेषज्ञ बनकर उन पर कुछ न कुछ कह-लिख रहा है।
अभी कल तक ही तो भगत सिंह की ओर लौटने, उनकी विचारधारा को अपनाने को कहा जा रहा था, अब गांधी की ओर लौटने और उनके गांधीवाद को अपनाने को कहा जा रहा है। मतलब- अभी हम यही तय नहीं कर पाए हैं कि हमें रहना किस विचारधारा के साथ है। किसे मानना है, किसे छोड़ देना है।
हर तरफ से गांधी को अपने-अपने खेमों में खींचने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसा ही कुछ पिछले दिनों डॉ. अंबेडकर के साथ भी किया गया था। जिन्होंने कभी गांधी जैसा जीवन जिया नहीं, जिनका दिन-रात मोबाइल और सोशल मीडिया पर मटरगश्ती करके गुजरता है, वे भी गांधीवाद पर लेक्चर दे रहे हैं। जिन्होंने शायद ही खुद जीवन में कभी खादी पहनी हो, वे हमसे खादी पहनने-अपनाने को कह रहे हैं। कभी जिन्होंने सादा जीवन नहीं जिया, हमसे सादा जीवन जीने को कह रहे हैं।
अपने महापुरुषों के प्रति हमारे मन में कितना 'नकलीपन' है, इसे हमने अभी हाल भगत सिंह को याद करते हुए देखा और अब गांधी को याद करते हुए साफ देख पा रहे हैं। जबकि सत्य यह है कि सामान्य जीवन में न मतलब हमें गांधी से रहता है न गांधीवाद से। गांधी की तस्वीर के नीचे बैठ हम क्या कुछ नहीं करते। गांधी के सत्य को आत्मसात करने की हिम्मत भी किसी के भीतर नहीं। लंबे-लंबे भाषण चाहे जितना दे लें। इसे ही तो कहने और करने में फर्क कहा जाता है।
हर तरफ एक होड़-सी मची है कि कौन व्यक्ति, कौन नेता, कौन पार्टी, कौन संगठन गांधी को कितना और किस सीमा तक याद कर सकता है। जिन्हें सालभर गांधी से कोई सरोकार नहीं रहता, वे भी उन्हें ऐसे याद कर रहे हैं मानो वे ही उनके सबसे बड़े भक्त हों।
नकली गांधीवाद का चलन हमारे जीवन में इस कदर बढ़ गया है कि जहां देखो उधर ही झोल नजर आता है।
आजकल सबसे ज्यादा बहस चल रही है गांधी और भगत सिंह के बीच व्याप्त वैचारिक मतभेद को लेकर। सोशल मीडिया पर जाने क्या कुछ नहीं लिखा जा रहा। इतिहास की जानकारी किसी को है नहीं लेकिन जिद ऐसी कि हम ही इतिहास के सबसे बड़े जानकर हैं। सोशल मीडिया पर जितनी भी चीजें आ रही हैं सब व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की ईजाद हैं। उनका काम ही रात-दिन तरह-तरह के भरम देश, समाज और लोगों के बीच फैलाना है। कोई भगत सिंह के बरक्स गांधी को खड़ा कर रहा है तो कोई गांधी के बरक्स भगत सिंह को। समाज में इतना दुष्प्रचार फैला दिया गया है कि यह तय कर पाना ही मुश्किल होता जा रहा है कि कौन सही है और कौन गलत।
गांधी और भगत सिंह के बीच मतभेद की सही जानकारी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कभी नहीं दे सकती। ये आपको उन पर लिखी गईं प्रामाणिक किताबों से ही मिल सकती है। क्रांतिकारियों का इतिहास पढ़िए, सबकुछ उनमें दर्ज है।
जब आप गांधी पर बात करते हैं या भगत सिंह पर तब आपको अन्य क्रांतिकारियों पर भी बात करनी पड़ेगी। उन गुमनाम क्रांतिकारियों का इतिहास भी जानना होगा, जिन्होंने देश की खातिर बलिदान दिया। सिर्फ गांधी या भगत सिंह को याद कर लेने भर से ही हम अपने क्रांतिकारी नायकों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
हो दरअसल आजकल यही रहा है कि हमने गांधी और भगत सिंह पर अपने ज्ञान को सीमित कर लिया है। जो सोशल मीडिया पर आ रहा है, उसे ही 'अंतिम सत्य' मान यहां-वहां प्रचारित किया जा रहा है। ये कच्चे तथ्य और अधिक भ्रम फैला रहे हैं समाज के बीच।
गांधी, गांधीवाद और उनकी राजनीति को समझना इतना सरल नहीं कि एक दिन में विशेषज्ञ बन जाएं। ये सब जानने-समझने के लिए आपको इतिहास के कटु सत्य से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा।
ऐसे जाने कितने ही वैचारिक मतभेद नेहरू और गांधी के बीच भी थे। पर हम उन पर बात या बहस करने से बचते हैं। क्योंकि हमारे अपने-अपने राजनीतिक और साहित्यिक एजेंडे हैं। यहां कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की भूमिका तो और भी अधिक हास्यास्पद लग रही है। वाम बुद्धिजीवियों का गांधी के प्रति प्रेम अचानक से इतना बढ़ गया है कि विश्वास ही नहीं हो रहा। वे गांधी में अपने नायक को तलाश रहे हैं।
गांधी को सिर्फ महिमामंडन की वस्तु न बनाइए। उन पर लिखी गई आलोचना को पढ़ने और आत्मसात करने की भी आदत डालिए। इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहे वो कोई हो। उसके गर्भ में हर एक का सच, झूठ और नकलीपन छिपा रहता है।
ध्यान रखे, गांधी को 'सिर्फ याद' करने की 'होड़' किसी तार्किक मुकाम तक नहीं ले जा पाएगी। जब तक की हम क्रांतिकारी इतिहास की सच्चाईयों से रू-ब-रू नहीं हो जाते।
अभी कल तक ही तो भगत सिंह की ओर लौटने, उनकी विचारधारा को अपनाने को कहा जा रहा था, अब गांधी की ओर लौटने और उनके गांधीवाद को अपनाने को कहा जा रहा है। मतलब- अभी हम यही तय नहीं कर पाए हैं कि हमें रहना किस विचारधारा के साथ है। किसे मानना है, किसे छोड़ देना है।
हर तरफ से गांधी को अपने-अपने खेमों में खींचने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसा ही कुछ पिछले दिनों डॉ. अंबेडकर के साथ भी किया गया था। जिन्होंने कभी गांधी जैसा जीवन जिया नहीं, जिनका दिन-रात मोबाइल और सोशल मीडिया पर मटरगश्ती करके गुजरता है, वे भी गांधीवाद पर लेक्चर दे रहे हैं। जिन्होंने शायद ही खुद जीवन में कभी खादी पहनी हो, वे हमसे खादी पहनने-अपनाने को कह रहे हैं। कभी जिन्होंने सादा जीवन नहीं जिया, हमसे सादा जीवन जीने को कह रहे हैं।
अपने महापुरुषों के प्रति हमारे मन में कितना 'नकलीपन' है, इसे हमने अभी हाल भगत सिंह को याद करते हुए देखा और अब गांधी को याद करते हुए साफ देख पा रहे हैं। जबकि सत्य यह है कि सामान्य जीवन में न मतलब हमें गांधी से रहता है न गांधीवाद से। गांधी की तस्वीर के नीचे बैठ हम क्या कुछ नहीं करते। गांधी के सत्य को आत्मसात करने की हिम्मत भी किसी के भीतर नहीं। लंबे-लंबे भाषण चाहे जितना दे लें। इसे ही तो कहने और करने में फर्क कहा जाता है।
हर तरफ एक होड़-सी मची है कि कौन व्यक्ति, कौन नेता, कौन पार्टी, कौन संगठन गांधी को कितना और किस सीमा तक याद कर सकता है। जिन्हें सालभर गांधी से कोई सरोकार नहीं रहता, वे भी उन्हें ऐसे याद कर रहे हैं मानो वे ही उनके सबसे बड़े भक्त हों।
नकली गांधीवाद का चलन हमारे जीवन में इस कदर बढ़ गया है कि जहां देखो उधर ही झोल नजर आता है।
आजकल सबसे ज्यादा बहस चल रही है गांधी और भगत सिंह के बीच व्याप्त वैचारिक मतभेद को लेकर। सोशल मीडिया पर जाने क्या कुछ नहीं लिखा जा रहा। इतिहास की जानकारी किसी को है नहीं लेकिन जिद ऐसी कि हम ही इतिहास के सबसे बड़े जानकर हैं। सोशल मीडिया पर जितनी भी चीजें आ रही हैं सब व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की ईजाद हैं। उनका काम ही रात-दिन तरह-तरह के भरम देश, समाज और लोगों के बीच फैलाना है। कोई भगत सिंह के बरक्स गांधी को खड़ा कर रहा है तो कोई गांधी के बरक्स भगत सिंह को। समाज में इतना दुष्प्रचार फैला दिया गया है कि यह तय कर पाना ही मुश्किल होता जा रहा है कि कौन सही है और कौन गलत।
गांधी और भगत सिंह के बीच मतभेद की सही जानकारी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कभी नहीं दे सकती। ये आपको उन पर लिखी गईं प्रामाणिक किताबों से ही मिल सकती है। क्रांतिकारियों का इतिहास पढ़िए, सबकुछ उनमें दर्ज है।
जब आप गांधी पर बात करते हैं या भगत सिंह पर तब आपको अन्य क्रांतिकारियों पर भी बात करनी पड़ेगी। उन गुमनाम क्रांतिकारियों का इतिहास भी जानना होगा, जिन्होंने देश की खातिर बलिदान दिया। सिर्फ गांधी या भगत सिंह को याद कर लेने भर से ही हम अपने क्रांतिकारी नायकों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
हो दरअसल आजकल यही रहा है कि हमने गांधी और भगत सिंह पर अपने ज्ञान को सीमित कर लिया है। जो सोशल मीडिया पर आ रहा है, उसे ही 'अंतिम सत्य' मान यहां-वहां प्रचारित किया जा रहा है। ये कच्चे तथ्य और अधिक भ्रम फैला रहे हैं समाज के बीच।
गांधी, गांधीवाद और उनकी राजनीति को समझना इतना सरल नहीं कि एक दिन में विशेषज्ञ बन जाएं। ये सब जानने-समझने के लिए आपको इतिहास के कटु सत्य से रू-ब-रू होना ही पड़ेगा।
ऐसे जाने कितने ही वैचारिक मतभेद नेहरू और गांधी के बीच भी थे। पर हम उन पर बात या बहस करने से बचते हैं। क्योंकि हमारे अपने-अपने राजनीतिक और साहित्यिक एजेंडे हैं। यहां कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की भूमिका तो और भी अधिक हास्यास्पद लग रही है। वाम बुद्धिजीवियों का गांधी के प्रति प्रेम अचानक से इतना बढ़ गया है कि विश्वास ही नहीं हो रहा। वे गांधी में अपने नायक को तलाश रहे हैं।
गांधी को सिर्फ महिमामंडन की वस्तु न बनाइए। उन पर लिखी गई आलोचना को पढ़ने और आत्मसात करने की भी आदत डालिए। इतिहास किसी को माफ नहीं करता, चाहे वो कोई हो। उसके गर्भ में हर एक का सच, झूठ और नकलीपन छिपा रहता है।
ध्यान रखे, गांधी को 'सिर्फ याद' करने की 'होड़' किसी तार्किक मुकाम तक नहीं ले जा पाएगी। जब तक की हम क्रांतिकारी इतिहास की सच्चाईयों से रू-ब-रू नहीं हो जाते।
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