त्योहार सिर पर हैं। ऑनलाइन बाजार तैयार है। सेल लगी हुई है। जमकर डिस्काउंट दिया जा रहा है। टीवी और अखबारों में आने वाला हर विज्ञापन कह रहा है कि खरीदो, खरीदो। मौका हाथ से न जाने दो। इस दफा चूके तो उम्र भर पछताओगे।
सबसे सस्ते की परिभाषा क्या होती है, यह बाजार हमें समझा रहा है। बाजार भी यह चाहता है कि हम त्योहार को छोड़ खरीददारी और सेल के बीच ही उलझे रहें। एक से बढ़कर एक ऑफर्स हैं। सबकुछ जीरो ईएमआई पर उपलब्ध है। हर सामान अपनी जेब के मुताबिक।
बाजार और त्योहार को मोबाइल आपस में जोड़े हुए है। टचस्क्रीन पर लगातार दौड़ती उंगलियां मानो कुछ भी छोड़ना नहीं चाहतीं। मोबाइल पर ही सारी ऑनलाइन खरीददारी हो रही है। इसी पर एक-दूसरे को त्योहार की बधाईयां भी दी जा रही हैं।
न कहीं बाहर आना है न जाना। घर बैठे जो चाहो खरीदो। किसी को भी विश करो। फ्री डेटा और अनलिमिटेड कॉल के युग में हर रिश्ता करीब जान पड़ता है।
ऑनलाइन बाजार बहुत कम समय में बहुत तेजी से हमारी जरूरत बन गया है। त्योहार की परिभाषा-भाषा ही बदलकर रख दी है इसने। आजकल के बच्चे त्योहार का मतलब सिर्फ खरीददारी ही समझते हैं। त्यौहारों का हमारे जीवन में क्या अर्थ, क्या महत्त्व है उन्हें नहीं पता। दोष उनका भी कहां है? खुद हमीं ने कहां उन्हें ये सब बताने का कभी प्रयास किया। जैसे हम दिनभर मोबाइल और ऑनलाइन बाजार में उलझे रहते हैं, बच्चे भी यही सीख रहे हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब त्योहारों पर लगता था कि त्यौहार हैं। सब एक साथ एक-दूसरे से मिलते थे। त्योहारों की परंपरा का ध्यान रखा जाता था। उन्हें उत्सव की तरह मनाया जाता था। तब बाजार का भी हम पर ऐसा प्रभाव नहीं था। मां-बाप जो खरीदकर दे देते थे, खुशी-खुशी पहन लेते थे। किसी के बीच स्मार्ट लगने-दिखने की कोई हिरस नहीं थी।
तब बाजार और कपड़ों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण त्योहार हुआ करते थे। अब त्योहारों पर लोगों को देखो तो ऐसा लगता है कि किसी फैशन परेड का हिस्सा बनने आए हैं। अब ये खबरें चौकाती भी नहीं कि किसी बड़ी कंपनी के कुछ घण्टों में हजारों मोबाइल बिक गए।
हां, यह सच है कि ऑनलाइन बाजार ने बाजार और खरीददारी को हमारे लिए बेहद आसान कर दिया है। अब कुछ भी खरीदने के लिए सड़कों या दुकानों पर भटकना नहीं पड़ता। एक क्लिक में हर चीज घर बैठे आपके सामने होती है। सेल और डिस्काउंट का नशा अलग ही होता है।
जिसके पास समय की कमी है, वो भला क्यों बाजार में जाकर धक्के खाएगा। यह होड़ भी हमारे बीच खूब चली है कि जब पड़ोसी ऑनलाइन चीज खरीद सकता है तो मैं क्यों नहीं? मोबाइल पर उंगलियां या तो सन्देश भेजने के लिए चलती हैं या फिर खरीदने के लिए।
ऑनलाइन बाजार के बढ़ते प्रभाव ने दशहरा, दिवाली जैसे त्योहारों की प्रासंगिकता को बहुत हद तक नुकसान पहुंचाया है। अपनों के बीच होकर भी हम उनके बीच नहीं होते। दशहरा, दीवाली का क्या महत्त्व है, बच्चे उतना ही जानते-समझते हैं, जितना उन्होंने अपने कोर्स की किताबों में पढ़ रखा होता है।
हमने अपना सारा सोशल सर्कल समाज के बीच से हटाकर सोशल मीडिया पर शिफ्ट कर दिया है। सारी सामाजिकताएं वहीं निभाई जा रही हैं। सारे सुख-दुख इसी पर बांटे जा रहे हैं।
आलम यह है कि त्योहार आ रहे हैं ऐसा कुछ हमें अहसास ही नहीं होता। एक वो दौर था जब हफ्ते भर पहले त्योहारों की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। मगर अब तो सबकुछ रेडीमेड और ऑनलाइन है।
कभी-कभी तो लगता है कि त्योहारों पर कितना खरीदते हैं हम। बाजार ने इतनी बुरी तरह हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उससे बाहर अगर निकलना चाहें तो भी नहीं निकल सकते। खरीददारी का ऐसा जाल बुना जे बाजार ने हमारे इर्द-गिर्द कि कितना बचेंगे।
हम दूसरों से ही नहीं, खुद अपने आप से कटते जा रहे हैं। इतना सीमित कर लिया है हमने अपनी जिंदगी को कि जहां उत्सव और त्योहार भी अब ज्यादा मायने नहीं रखते।
हर त्योहार का मूल स्वभाव आपस में जोड़ना, उमंग-उत्सव बनाए रखना, व्यस्तताओं से निजात पाना होता है। लेकिन हमने तो खुद को बाजार के हवाले कर दिया है। बाजार आकर्षक दे सकता किंतु सुकून नहीं दे सकता। रिश्तों में गर्माहट, सरलता, अपनापन नहीं डाल सकता। त्योहार का महत्त्व नहीं बता सकता। दिलों में उमंग का संचार नहीं कर सकता।
बावजूद इसके हमारे मध्य ऑनलाइन बाजार की चकाचौंध निरंतर बढ़ती ही जा रही है। यह कहां जाकर रुकेगी या कभी रुकेगी भी; कोई नहीं जानता। त्योहार आएंगे-जाएंगे मगर बाजार हमें यों ही अपने मोहपाश में बांधे रहेगा। क्या करें, हमारा व्यवहार और दिमाग कुछ इस तरह का विकसित हो चुका है, जहां बाजार ही सबकुछ है, रिश्ते नहीं।
बीते वक़्त का एक नॉस्टेल्जिया ही हम अपने मन में पाल सकते हैं। सच यही है कि न वो वक़्त और न वो त्योहारों की तासीर ही वापस लौटेगी। बाजार और त्योहार के बीच एक-दूसरे को लुभाने की कोशिशें आगे भी ऐसे ही जारी रहेंगी।
सबसे सस्ते की परिभाषा क्या होती है, यह बाजार हमें समझा रहा है। बाजार भी यह चाहता है कि हम त्योहार को छोड़ खरीददारी और सेल के बीच ही उलझे रहें। एक से बढ़कर एक ऑफर्स हैं। सबकुछ जीरो ईएमआई पर उपलब्ध है। हर सामान अपनी जेब के मुताबिक।
बाजार और त्योहार को मोबाइल आपस में जोड़े हुए है। टचस्क्रीन पर लगातार दौड़ती उंगलियां मानो कुछ भी छोड़ना नहीं चाहतीं। मोबाइल पर ही सारी ऑनलाइन खरीददारी हो रही है। इसी पर एक-दूसरे को त्योहार की बधाईयां भी दी जा रही हैं।
न कहीं बाहर आना है न जाना। घर बैठे जो चाहो खरीदो। किसी को भी विश करो। फ्री डेटा और अनलिमिटेड कॉल के युग में हर रिश्ता करीब जान पड़ता है।
ऑनलाइन बाजार बहुत कम समय में बहुत तेजी से हमारी जरूरत बन गया है। त्योहार की परिभाषा-भाषा ही बदलकर रख दी है इसने। आजकल के बच्चे त्योहार का मतलब सिर्फ खरीददारी ही समझते हैं। त्यौहारों का हमारे जीवन में क्या अर्थ, क्या महत्त्व है उन्हें नहीं पता। दोष उनका भी कहां है? खुद हमीं ने कहां उन्हें ये सब बताने का कभी प्रयास किया। जैसे हम दिनभर मोबाइल और ऑनलाइन बाजार में उलझे रहते हैं, बच्चे भी यही सीख रहे हैं।
एक समय ऐसा भी था, जब त्योहारों पर लगता था कि त्यौहार हैं। सब एक साथ एक-दूसरे से मिलते थे। त्योहारों की परंपरा का ध्यान रखा जाता था। उन्हें उत्सव की तरह मनाया जाता था। तब बाजार का भी हम पर ऐसा प्रभाव नहीं था। मां-बाप जो खरीदकर दे देते थे, खुशी-खुशी पहन लेते थे। किसी के बीच स्मार्ट लगने-दिखने की कोई हिरस नहीं थी।
तब बाजार और कपड़ों से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण त्योहार हुआ करते थे। अब त्योहारों पर लोगों को देखो तो ऐसा लगता है कि किसी फैशन परेड का हिस्सा बनने आए हैं। अब ये खबरें चौकाती भी नहीं कि किसी बड़ी कंपनी के कुछ घण्टों में हजारों मोबाइल बिक गए।
हां, यह सच है कि ऑनलाइन बाजार ने बाजार और खरीददारी को हमारे लिए बेहद आसान कर दिया है। अब कुछ भी खरीदने के लिए सड़कों या दुकानों पर भटकना नहीं पड़ता। एक क्लिक में हर चीज घर बैठे आपके सामने होती है। सेल और डिस्काउंट का नशा अलग ही होता है।
जिसके पास समय की कमी है, वो भला क्यों बाजार में जाकर धक्के खाएगा। यह होड़ भी हमारे बीच खूब चली है कि जब पड़ोसी ऑनलाइन चीज खरीद सकता है तो मैं क्यों नहीं? मोबाइल पर उंगलियां या तो सन्देश भेजने के लिए चलती हैं या फिर खरीदने के लिए।
ऑनलाइन बाजार के बढ़ते प्रभाव ने दशहरा, दिवाली जैसे त्योहारों की प्रासंगिकता को बहुत हद तक नुकसान पहुंचाया है। अपनों के बीच होकर भी हम उनके बीच नहीं होते। दशहरा, दीवाली का क्या महत्त्व है, बच्चे उतना ही जानते-समझते हैं, जितना उन्होंने अपने कोर्स की किताबों में पढ़ रखा होता है।
हमने अपना सारा सोशल सर्कल समाज के बीच से हटाकर सोशल मीडिया पर शिफ्ट कर दिया है। सारी सामाजिकताएं वहीं निभाई जा रही हैं। सारे सुख-दुख इसी पर बांटे जा रहे हैं।
आलम यह है कि त्योहार आ रहे हैं ऐसा कुछ हमें अहसास ही नहीं होता। एक वो दौर था जब हफ्ते भर पहले त्योहारों की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। मगर अब तो सबकुछ रेडीमेड और ऑनलाइन है।
कभी-कभी तो लगता है कि त्योहारों पर कितना खरीदते हैं हम। बाजार ने इतनी बुरी तरह हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उससे बाहर अगर निकलना चाहें तो भी नहीं निकल सकते। खरीददारी का ऐसा जाल बुना जे बाजार ने हमारे इर्द-गिर्द कि कितना बचेंगे।
हम दूसरों से ही नहीं, खुद अपने आप से कटते जा रहे हैं। इतना सीमित कर लिया है हमने अपनी जिंदगी को कि जहां उत्सव और त्योहार भी अब ज्यादा मायने नहीं रखते।
हर त्योहार का मूल स्वभाव आपस में जोड़ना, उमंग-उत्सव बनाए रखना, व्यस्तताओं से निजात पाना होता है। लेकिन हमने तो खुद को बाजार के हवाले कर दिया है। बाजार आकर्षक दे सकता किंतु सुकून नहीं दे सकता। रिश्तों में गर्माहट, सरलता, अपनापन नहीं डाल सकता। त्योहार का महत्त्व नहीं बता सकता। दिलों में उमंग का संचार नहीं कर सकता।
बावजूद इसके हमारे मध्य ऑनलाइन बाजार की चकाचौंध निरंतर बढ़ती ही जा रही है। यह कहां जाकर रुकेगी या कभी रुकेगी भी; कोई नहीं जानता। त्योहार आएंगे-जाएंगे मगर बाजार हमें यों ही अपने मोहपाश में बांधे रहेगा। क्या करें, हमारा व्यवहार और दिमाग कुछ इस तरह का विकसित हो चुका है, जहां बाजार ही सबकुछ है, रिश्ते नहीं।
बीते वक़्त का एक नॉस्टेल्जिया ही हम अपने मन में पाल सकते हैं। सच यही है कि न वो वक़्त और न वो त्योहारों की तासीर ही वापस लौटेगी। बाजार और त्योहार के बीच एक-दूसरे को लुभाने की कोशिशें आगे भी ऐसे ही जारी रहेंगी।
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