किताबों और लेखकों दोनों की दुनिया बदल चुकी है। किताबें अब भी खूब छप रही हैं। लेखक अब भी खूब लिख रहे हैं। बदलाव बस यह आया है कि दोनों के बीच अब बाजार आ गया है। बाजार ने ही दोनों को एक-दूसरे से जोड़ रखा है। आज हर किताब और हर लेखक का अपना बाजार है। इसी के सहारे वे अपने पाठकों तक पहुंच रहे हैं। बाजार की जैसी डिमांड है उस हिसाब से लिख भी रहे हैं। हिंदी और अंगरेजी में यह काम अब बराबर का हो रहा है। बहुत से अंगरेजी के लेखकों की किताबें अनुवादित होकर हिंदी में भी आ रही हैं। अंगरेजी से इतर हिंदी में भी उनका बाजार डेवलप हो रहा है। यह न केवल हिंदी बल्कि बाजार, लेखक और पाठक के लिए भी अच्छा संकेत है।
इस बाजार को बनाने में ऑन-लाइन प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया की भी महत्ती भूमिका है। आज की तारीख में शायद ही ऐसा कोई लेखक होगा, जो सोशल मीडिया पर न हो। या जिसकी किताब ऑन-लाइन उपलब्ध न हो। लेखक अब अपनी किताब खुद ही बेच रहा है। अपने फेसबुक पेज और ट्विटर खाते से अपनी किताबों का प्रचार-प्रसार कर रहा है। इसका फायदा लेखक को यह मिला है कि उसकी पाठकों और दुनिया भर में 'रीच' बढ़ी है। ज्यादा से ज्यादा लोग उसे जानने व पढ़ने लगे हैं। वो स्थापित हो रहा है लेखन की दुनिया में। इस बहाने के एक नई तरह की दुनिया और समाज उसके समक्ष खुल रहा है। नए पाठक मिल रहे हैं। नई प्रतिक्रियाएं सुनने व पढ़ने को मिल रही हैं। और तो और शशि थरूर जैसे अंग्रेजीदां भी कभी-कभार हिंदी में ट्वीट करने लगे हैं। उनकी किताब के हिंदी अनुवाद आ रहे हैं।
यह कहना गलत न होगा कि बाजार और भाषा के टूटते बंधनों ने बहुत हद तक लेखकों और पाठकों को नजदीक लाने का काम किया है। साथ-साथ हिंदी के लेखकों की किताबें भी अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में अनुवादित होकर खूब बिक रही हैं।
ऐसा भी नहीं है कि किताबें सिर्फ ऑन-लाइन ही बिक रही हैं। ऑफ-लाइन भी किताबें खूब बेची जा रही हैं। जब बिक रही हैं तो इसका मतलब लोग पढ़ रहे हैं। अक्सर यह ताना मार दिया जाता है कि लोग अब पढ़ते ही कहां हैं। मोबाइल ने पढ़ने की भूख छीन ली है। पर ऐसा नहीं है। जिन्हें पढ़ने का शौक है, वे आज भी पढ़ रहे हैं। चाहे इंटरनेट पर पढ़ें या किंडल पर लेकिन पढ़ रहे हैं। खोज-खोजकर पढ़ रहे हैं। पढ़ने के लिए समय निकाल रहे हैं। युवा पीढ़ी में भी कुछ युवा ऐसे हैं, जिन्हें किताबों से प्रेम है और वे जीभर कर पढ़ते हैं। अपने पसंदीदा लेखक से संवाद भी बनाए रखते हैं।
दिल्ली में हर साल लगने वाला पुस्तक मेला दरअसल हमारे पढ़ने की भूख को जिंदा रखे रहने का एक खूबसूरत आयोजन है। किताबों के दीवाने मेले तक पहुंचते हैं, अपनी पसंद की किताबें खरीदते हैं। इस बहाने उनका उन लेखकों से भी मिलना हो जाता है, जिन्हें वे अब तक पढ़ते आए हैं। उनसे संवाद बनता है।
पुस्तक मेला भी बाजार में किताबों को स्थापित कर रहा है। यह बात अब हर कोई जान-समझ गया है कि बिना बाजार में आए या उसका सहारा लिए अब अपनी किताब को बेच पाना असंभव है। शुद्धतावादी लेखन और लेखकों के जमाने अब लद चुके हैं। लिखा वो जा रहा है, जो बिके। लेखन अगर दिलचस्प होगा तो शर्तिया बिकेगा। श्रीलाल शुक्ल का क्लासिक 'राग दरबारी' इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी आज तक बिंदास बिक रहा है और खूब पढ़ा भी जा रहा है। प्रेमचंद और परसाई को भी पढ़ा जा रहा है। गीत चतुर्वेदी और मानव कौल जैसे कवि युवाओं की पसंद बन चुके हैं।
अब तक इस बात का सेहरा अंगरेजी के लेखकों के सिर पर ही बांधा जाता था कि वे बड़ी खूबसूरती से बाजार में अपनी किताबें बेच लेते हैं। बाजार भी उन्हें हाथों-हाथ लेता है। विज्ञापन के सहारे भी वे अपनी किताब को बाजार और पाठकों के बीच लेकर आते हैं। माना कि अंगरेजी में हिंदी के मुकाबले मैरिट थोड़ी ज्यादा है पर अब हिंदी के लेखक भी खुद को बाजार से जोड़ रहे हैं। वे भी अपनी किताब का प्रमोशन कर रहे हैं। शहरों में लगने वाले पुस्तक मेलों में वे भी अपनी किताब के साथ मौजूद होते हैं। पाठक भी उनके प्रति अब सजग हो रहा है। लेखक और पाठक के बीच फासले घट रहे हैं। यह आवश्यक भी है। हर पाठक को हर लेखक से संवाद का हक है। ताकि वो लेखक के लेखन की रचना प्रक्रिया को जान-समझ सके। कुछ अपनी कहे तो कुछ लेखक की सुने।
इंटरनेट और सोशल मीडिया लेखकों और पाठकों को और नजदीक लाया है। अब कितना आसानी से पाठक लेखकों की पढ़ी हुई किताबों पर अपनी राय रख सकता है। जबकि कुछ समय पहले तक यह इतना आसान न था। तब संवाद की प्रक्रिया काफी इंतजार लेती थी। खत लिखे जाते थे। तब कहीं जाकर जवाब आता था मगर अब लेखक और पाठक दोनों एक-दूसरे के करीब हैं। सोशल मीडिया इस पुल को बहुत खूबसूरती से जोड़े हुआ है।
पुस्तक मेला एक दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के हर शहर, गांव-कस्बों में निरंतर लगते रहने चाहिए। इससे लोगों के भीतर किताब को खरीदकर पढ़ने की आदत तो बनेगी ही साथ-साथ किताबों की बाजार में डिमांड भी बढ़ेगी। बाजार और किताब को एक-दूसरे का पूरक बनना ही होगा। जैसे-जैसे डिमांड बढ़ेगी, कॉम्पिटिशन भी बढ़ेगा; फायदा लेखक और किताब को ही होगा। पाठकों को भी अच्छा पढ़ने को मिल जाया करेगा।
यह समय बाजार का है। जिस लेखक ने खुद को बाजार के अनुरूप ढाल लिया फिर उसे 'हिट' होने से कोई नहीं रोक सकता।
इस बाजार को बनाने में ऑन-लाइन प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया की भी महत्ती भूमिका है। आज की तारीख में शायद ही ऐसा कोई लेखक होगा, जो सोशल मीडिया पर न हो। या जिसकी किताब ऑन-लाइन उपलब्ध न हो। लेखक अब अपनी किताब खुद ही बेच रहा है। अपने फेसबुक पेज और ट्विटर खाते से अपनी किताबों का प्रचार-प्रसार कर रहा है। इसका फायदा लेखक को यह मिला है कि उसकी पाठकों और दुनिया भर में 'रीच' बढ़ी है। ज्यादा से ज्यादा लोग उसे जानने व पढ़ने लगे हैं। वो स्थापित हो रहा है लेखन की दुनिया में। इस बहाने के एक नई तरह की दुनिया और समाज उसके समक्ष खुल रहा है। नए पाठक मिल रहे हैं। नई प्रतिक्रियाएं सुनने व पढ़ने को मिल रही हैं। और तो और शशि थरूर जैसे अंग्रेजीदां भी कभी-कभार हिंदी में ट्वीट करने लगे हैं। उनकी किताब के हिंदी अनुवाद आ रहे हैं।
यह कहना गलत न होगा कि बाजार और भाषा के टूटते बंधनों ने बहुत हद तक लेखकों और पाठकों को नजदीक लाने का काम किया है। साथ-साथ हिंदी के लेखकों की किताबें भी अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में अनुवादित होकर खूब बिक रही हैं।
ऐसा भी नहीं है कि किताबें सिर्फ ऑन-लाइन ही बिक रही हैं। ऑफ-लाइन भी किताबें खूब बेची जा रही हैं। जब बिक रही हैं तो इसका मतलब लोग पढ़ रहे हैं। अक्सर यह ताना मार दिया जाता है कि लोग अब पढ़ते ही कहां हैं। मोबाइल ने पढ़ने की भूख छीन ली है। पर ऐसा नहीं है। जिन्हें पढ़ने का शौक है, वे आज भी पढ़ रहे हैं। चाहे इंटरनेट पर पढ़ें या किंडल पर लेकिन पढ़ रहे हैं। खोज-खोजकर पढ़ रहे हैं। पढ़ने के लिए समय निकाल रहे हैं। युवा पीढ़ी में भी कुछ युवा ऐसे हैं, जिन्हें किताबों से प्रेम है और वे जीभर कर पढ़ते हैं। अपने पसंदीदा लेखक से संवाद भी बनाए रखते हैं।
दिल्ली में हर साल लगने वाला पुस्तक मेला दरअसल हमारे पढ़ने की भूख को जिंदा रखे रहने का एक खूबसूरत आयोजन है। किताबों के दीवाने मेले तक पहुंचते हैं, अपनी पसंद की किताबें खरीदते हैं। इस बहाने उनका उन लेखकों से भी मिलना हो जाता है, जिन्हें वे अब तक पढ़ते आए हैं। उनसे संवाद बनता है।
पुस्तक मेला भी बाजार में किताबों को स्थापित कर रहा है। यह बात अब हर कोई जान-समझ गया है कि बिना बाजार में आए या उसका सहारा लिए अब अपनी किताब को बेच पाना असंभव है। शुद्धतावादी लेखन और लेखकों के जमाने अब लद चुके हैं। लिखा वो जा रहा है, जो बिके। लेखन अगर दिलचस्प होगा तो शर्तिया बिकेगा। श्रीलाल शुक्ल का क्लासिक 'राग दरबारी' इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी आज तक बिंदास बिक रहा है और खूब पढ़ा भी जा रहा है। प्रेमचंद और परसाई को भी पढ़ा जा रहा है। गीत चतुर्वेदी और मानव कौल जैसे कवि युवाओं की पसंद बन चुके हैं।
अब तक इस बात का सेहरा अंगरेजी के लेखकों के सिर पर ही बांधा जाता था कि वे बड़ी खूबसूरती से बाजार में अपनी किताबें बेच लेते हैं। बाजार भी उन्हें हाथों-हाथ लेता है। विज्ञापन के सहारे भी वे अपनी किताब को बाजार और पाठकों के बीच लेकर आते हैं। माना कि अंगरेजी में हिंदी के मुकाबले मैरिट थोड़ी ज्यादा है पर अब हिंदी के लेखक भी खुद को बाजार से जोड़ रहे हैं। वे भी अपनी किताब का प्रमोशन कर रहे हैं। शहरों में लगने वाले पुस्तक मेलों में वे भी अपनी किताब के साथ मौजूद होते हैं। पाठक भी उनके प्रति अब सजग हो रहा है। लेखक और पाठक के बीच फासले घट रहे हैं। यह आवश्यक भी है। हर पाठक को हर लेखक से संवाद का हक है। ताकि वो लेखक के लेखन की रचना प्रक्रिया को जान-समझ सके। कुछ अपनी कहे तो कुछ लेखक की सुने।
इंटरनेट और सोशल मीडिया लेखकों और पाठकों को और नजदीक लाया है। अब कितना आसानी से पाठक लेखकों की पढ़ी हुई किताबों पर अपनी राय रख सकता है। जबकि कुछ समय पहले तक यह इतना आसान न था। तब संवाद की प्रक्रिया काफी इंतजार लेती थी। खत लिखे जाते थे। तब कहीं जाकर जवाब आता था मगर अब लेखक और पाठक दोनों एक-दूसरे के करीब हैं। सोशल मीडिया इस पुल को बहुत खूबसूरती से जोड़े हुआ है।
पुस्तक मेला एक दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के हर शहर, गांव-कस्बों में निरंतर लगते रहने चाहिए। इससे लोगों के भीतर किताब को खरीदकर पढ़ने की आदत तो बनेगी ही साथ-साथ किताबों की बाजार में डिमांड भी बढ़ेगी। बाजार और किताब को एक-दूसरे का पूरक बनना ही होगा। जैसे-जैसे डिमांड बढ़ेगी, कॉम्पिटिशन भी बढ़ेगा; फायदा लेखक और किताब को ही होगा। पाठकों को भी अच्छा पढ़ने को मिल जाया करेगा।
यह समय बाजार का है। जिस लेखक ने खुद को बाजार के अनुरूप ढाल लिया फिर उसे 'हिट' होने से कोई नहीं रोक सकता।
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