कुछ खबरिया चैनलों पर 'भाषा' का अजीब ही खेल चल रहा है। सड़क पर बोली जाने वाली भाषा चैनलों पर आ गई है। किसी को कुछ भी बोल दिया जा रहा है। लगता ही नहीं कि हम न्यूज़ चैनल देख रहे हैं या नेटफ्लिक्स! भाषा की मर्यादा, जोकि न्यूज़ चैनलों की आन रही है, का किसी को ख्याल नहीं।
अक्सर यह सवाल मन में आता है कि क्या खबरिया चैनल चीखने-चिल्लाने और उन्माद पैदा करने के लिए ही रह गए हैं। टीवी पर खबरों का वो दौर भी हमने देखा है, जब दूरदर्शन पर बेहद सहजता और शालीनता के साथ खबरें पढ़ी जाती थीं। खबर प्रोस्ता की भाव-भंगिमा से कभी यह लगता ही नहीं था कि वह अति-उतेजना में है।
लेकिन आज स्थिति यह हो चली है कि टीवी पर खबरें देखने का मन ही नहीं करता। खासकर परिवार के साथ तो बिल्कुल भी नहीं। कभी सोचा न था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब हम खबरें देखने व सुनने से जी चुराएंगे। कुछ भरोसा नहीं रहता कि एंकर कब क्या बोल दे और, उन्हें नहीं, हमें परिवार के बीच शर्मिंदा होना पड़े।
कभी-कभी लगता है कि खबरिया चैनलों पर राजनीति बहस अब बंद होनी ही चाहिए। न शब्दों की मर्यादा न एक-दूसरे की उम्र का ख्याल, जो जिसके मन में आ रहा है खुलेआम बोल दे रहा है। कितनी ही बार आपस में हाथापाई तक की नौबत आ चुकी है। क्या ऐसे होती हैं राष्ट्रीय चैनलों पर बहसें? भाषा को बदनाम किया जाता है।
सुशांत-रिया मसले के बाद से टीवी पर बहस और भाषा अधिक गड़बड़ाई है। दोषी एंकर्स भी हैं। उन्होंने भी मर्यादा का ख्याल नहीं रखा है। चैनल पर बैठकर एंकर्स का चीखना-चिल्लाना क्या शोभा देता है? जो बात आप चीखकर कह रहे हैं, शालीनता से भी पूछ सकते हैं। न भूलिए कि आप एंकर हैं, जज नहीं। आप खबर दे सकते हैं, न्याय नहीं। यह भी न भूलें कि आपकी भाषा को वे नौजवान भी देख-सुन रहे होते हैं, जिन्हें कल को अपना भविष्य किसी अखबार या न्यूज़ चैनल के साथ शुरू करना है। जब आप ही भाषा से डिग जाएंगे फिर बाकी क्या रह जाएगा।
भाषा के कुछ हद तक संस्कार खबरिया चैनलों से भी मिलते हैं। एंकर का खबर पढ़ने का ढंग, शब्दों का चयन, शालीनता का दायरा आदि हमेशा साथ चलती हैं। आलम यह है कि आज किसी भी चैनल को लगा लीजिए, वहां भाषा के दर्शन होंगे, ख्याल ही नहीं आता। बस एकाध मुद्दों तक ही खबरें और बहसें सिमटकर रह गई हैं। देश में इसके अलावा भी बहुत कुछ हो-चल रहा है लेकिन उन्हें खबर नहीं। किसी भी बड़ी खबर को चैनल का आदि और अंत न बनाइए। इससे दर्शक के पास चॉइस ही नहीं बचेगी कि वो क्या देखे, क्या छोड़ दे। दर्शक को एक ही खूंटे से न बांधिए।
कुछ चैनलों का ध्यान आजकल बॉलीवुड में चल रही ड्रग्स की खबरों तक सीमित होकर रह गया है। माना कि यह एक बड़ा और गम्भीर मुद्दा है। पर इतने बड़े देश में सिर्फ एक यही मुद्दा तो नहीं। बहुत कुछ यहां ऐसा होता व चलता रहता है, जहां मीडिया नहीं पहुंच पाता। जाने कितनी अनजानी व अनपहचानी खबरें सोशल मीडिया ही ब्रेक कर देता है। सोशल मीडिया भी एक समानांतर खबरिया माध्यम है। वहां भी दिनभर कुछ न कुछ खबरें और बहसें चलती रहती हैं। यह भी सही है कि भाषा की गरिमा वहां भी तार-तार होती रहती है।
भाषा का पटरी से उतर जाना एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। सिर्फ टीवी चैनल ही नहीं आम समाज भी इससे निरंतर जूझ रहा है। समाधान क्या है? बिल्कुल समाधान है और वह है खुद की ज़बान और शब्दों पर नियंत्रण रखना। यह निर्भर हम पर कि खुद को कितना और कहां तक रोक पाते हैं।
पता नहीं खबरिया चैनलों पर भाषा की गरिमा का वो दौर लौटेगा कि नहीं। पर उम्मीद कर सकते हैं कि कभी न कभी चीजें बदलेंगी और उनमें सुधार भी होगा। तब शायद टीवी पर खबरों का रूप, स्वरूप और भाषा की शुश्चिता आज से कुछ जुदा हो।