प्रतीकात्मक चित्र |
अक्सर ही लोगों को कहते सुनता हूं कि आज का समय, जबकि सोशल मीडिया ने सबकुछ को काफी नजदीक ला दिया है, बड़ा आसान है। झट से चीजें यहां से वहां चली जाती हैं। आपस में बातें करना कितना सरल हो गया है। कहीं आने-जाने की जरूरत ही नहीं, बस जहां हैं, वहीं से बैठे-बैठे कुछ भी खरीद लो या बेच दो।
कहना न होगा कि सोशल मीडिया के चलन और इंटरनेट के प्रभाव ने जीवन को 'आरामतलबी' वाला बना दिया है। यही आरामतलबी अब हमारे लिए नासूर बनती जा रही है। पहले दो घड़ी बैठकर जीवन और संबंधों के बारे में सोच-विचार भी लेते थे मगर अब ऐसा नहीं है। अब तो हर जगह से संबंधों को सीमित करने का रिवाज-सा चल पड़ा है। हर कोई अपने समय न मिलने की समस्या बता देता है। जबकि समय सबके पास होता है लेकिन देना उसे कोई नहीं चाहता।
जीवन को हमने एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहां दूर-दूर तक रास्ते ही नजर आते हैं, लेकिन मंजिल कहीं नहीं मिलती। जहां मंजिलें नजर आती भी हैं, उनके सौदे हो चुके होते हैं। जो जिस राह चल रहा है, चलने दें टोके नहीं उसे।
मुझे तो अपने आसपास बे-गर्दन लोग ही दिखाई देते हैं। क्या करें, सबकी गर्दनें तो अपने-अपने मोबाइल फोन में घुसी रहती हैं। जो भी बात कहनी-सुननी होती हैं, टच-स्क्रीन पर उंगलियां ही कहती-सुनती हैं। हालांकि इर्दगिर्द शोर तो बहुत है पर यह इंसानों से ज्यादा गाड़ियों का है।
किस्से-कहानियां सुनाने वाली पीढ़ी चला-चली के दौर में है। जो हैं भी उन्हें देने के लिए हमारे पास वक़्त नहीं। पुरानी पीढ़ी के किस्से भी क्या खूब किस्से हुआ करते थे, सीधे उनके जीवन से निकले। जहां जीवन को जाकर खोजना नहीं पड़ता था, वो साक्षात आपके सामने खड़ा रहता था। तरह-तरह के अनुभव देकर जाता था। साहित्य ऐसी कहानियों से बिखरा पड़ा है।
कभी-कभी सोच में पड़ जाता हूं कि हमारी पीढ़ी के पास आगे आने वाली पीढ़ी को देने के लिए क्या है। कितने किस्से-कहानियां हैं। कितने जीवन के टेढ़े-मेढ़े अनुभव हैं। कितनी बातें हैं। सब कुछ को तो हमने एक डिब्बे (मोबाइल) में बंद किया हुआ है। उससे बाहर कुछ भी जाने ही नहीं देना चाहते। मन में एक डर-सा लगा रहता है कि किस्से बाहर आ गए तो क्या होगा? यह डर ही तो हमारे जीवन को कष्टदायक बना रहा है।
रिश्तों में ही अजीब-सा खिंचाव आ गया है। जिन रिश्तों को कभी करीबी माना जाता था, उनमें दूरियां बढ़ गई हैं। हम संबंधों-रिश्तों की परिभाषाएं फेसबुक पर गढ़ने लगे हैं। यहां वो आदमी खुद को बड़ा सौभाग्यशाली मानता है, जिसके फेसबुक पर हजारों की संख्या में मित्र होते हैं। जिसके लिखे को हजारों लोग लाइक करते व टिप्पणी देते हैं। मन में हर समय यह चाह पलती रहती है कि इसमें अभी और इजाफा होना चाहिए।
वहां हमने अपना कुछ भी निजी नहीं रहने दिया है। सबकुछ सार्वजनिक कर डाला है। अब सामने वाले को यह तक पता होता है कि आप कब क्या खा रहे हैं और कितने बजे सोने जा रहे हैं। कहां-कहां घूम-फिर आए हैं।
कुछ लोग इसी लफ्फाजी में जीवन का सुख तलाशते हैं। उनके लिए सबकुछ अब यही है। जमीन से निरंतर कटते जा रहे हैं लोग। जब देखो तो हर शख्स किसी गफलत में डूबा-सा नजर आता है। बेचैन रहता है पर जताता ऐसे है मानो दुनिया का सबसे सुखी आदमी वही है।
अपनों से कटकर वर्चुअल संसार में जीवन का सुख और आराम खोजने वाले कभी खुश नहीं रह सकते। उनके चेहरों पर जिस खुशी को आप देख रहे हैं, दरअसल, वो खुशी नहीं, उनकी हार है। एक ऐसी हार जिसे वे कभी जीत नहीं सकते।
जीवन कितनी आसानी से हमारे ही सामने लुटता जा रहा है। और हम हैं कि खड़े-खड़े तमाशा देख रहे हैं। खुद में ही इतने उलझकर रह गए हैं कि सामने वाले की पीड़ा भी हमें अब दिखाई नहीं देती। मदद को उठाने वाले हाथ भी 'कुछ अपेक्षा' की दरकार रखते हैं। क्या इतने ही असंवेदनशील थे हम?
ये लोग। ये जीवन। कभी ऐसा तो नहीं था। सबकुछ कितना बदल गया है। बदलता जा रहा है। यों, बदलाव बुरे नहीं होते लेकिन हमने तो बदलावों को अपने ही विरुद्ध खड़ा कर लिया है।
जीवन आगे जाकर सरल नहीं और कठिन ही होना है। तब तो हम-आप और हमारे संबंध और रिश्ते और भी कठिनतर हो जाएंगे। फिर क्या कोई ऐसा भी होगा हमारे पास जिसे हम अपना कह पुकार पाएंगे। सोचिएगा जरा।