वो दरअसल सब जानते हैं कि वो क्या कर रहे हैं। देश में साम्प्रदायिक आग की भट्टी जलाकर 'शांति' की अपील कर रहे हैं। खुद को सेक्युलर घोषित कर रहे हैं। लेकिन हम क्या करेंगे उनके सेक्युलरिज्म का? ऐसा सेक्युलरिज्म भला किस काम का जो देश को बांटे। दिलों में नफरत की दीवारें पैदा करे। नहीं, ऐसा सेक्युलरिज्म नहीं चाहिए।
और यह सब दिल्ली में तब हो रहा है, जब हम एक विदेशी मेहमान (अमेरिकी राष्ट्रपति) के साथ थे। वाह! विदेशी मेहमान को भी हमने आखिर बता ही दिया कि स्वभाव में हम कितने 'उद्दंड' और कितने 'अराजक' हैं। हालांकि परंपरा तो हमारी मेहमान के स्वागत-सत्कार की रही है लेकिन हमने तो इसका उल्टा उदाहरण पेश किया। क्या सोच और लिख रहा होगा विदेशी मीडिया हमारे बारे में। यहां के लोगों के बारे में। यहां की कथित महान परंपरा के बारे में। खुद उस मेहमान ने भी क्या सोचा होगा!
किंतु इस सब से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो दरअसल अपने एजेंडे 'कामयाब' हुए। उन्हें लोगों के दिलों में नफरत के बीज बोने थे, बो दिए। देश की राजधानी को दंगे और आग के हवाले कर दिया। उनका काम हो गया। अब वे उन दंगों और आग पर कभी सरकार तो कभी प्रधानमंत्री से जवाब मांगेंगे। जबान जब भी खोलेंगे जहर ही उगलेंगे। उन्हें न चिंता देश की है। न आम नागरिक की। न लोकतंत्र की। न संविधान की। न जल चुके घरों की। न तबाह कर दी गईं दुकानों की। वे तो लगे हुए हैं सेक्युलरिज्म के नाम पर नफरत की रोटियां सेंकने में। शायद वे भीतर ही भीतर खुश भी होंगे!
उधर जो आग सोशल मीडिया के बहाने लगाई जा रही है, वो तो और भी विकट है। कभी अराजक तस्वीरों, कभी हिंसक वीडियो शेयर करना क्या देश में भड़काऊ संदेश नहीं देता। जबकि ऐसे समय में ऐसी चीजों से साफ बचा जाना चाहिए। लोगों के बीच शांति का संदेश देना चाहिए। आग को भड़कने से रोकना चाहिए। यह देश किसी एक का नहीं, हम सब का है। अगर हम ही देश की भद्द पिटवाने को तैयार बैठे रहेंगे तो कोई भी विदेशी मुल्क इसका फायदा उठाएगा ही।
सब कुछ 'विरोध' की आड़ में हो रहा है। लेकिन उन भोले (!) लोगों को यह मालूम ही नहीं कि विरोध का कारण क्या है! उन्हें तो बस एक चीज बता और समझा दी गई है कि तुम्हें विरोध करना है। धरना-प्रदर्शन करना है। सड़क को घेरे रहना है। पत्थरबाजी करनी है। निहत्थों पर वार करना है। सो, वो कर रहे हैं। सब समझ की कमी है। और उसी कमी का फायदा देश को तोड़ और बांटकर उठाया जा रहा है। यह दुखद है।
हिंसा कभी इस देश के स्वभाव में नहीं रही। हम वो मुल्क हैं, जो सदा ही शांति का संदेश देते चले आए हैं। हर जात, हर धर्म के लोग यहां रहते हैं। एक-दूसरे के प्रति दिलों में नफरत नहीं अपनापन और भाईचारा रखते हैं। लेकिन यह एका और भाईचारा उन लोगों की आंखों में खटकता है, जिनकी फितरत ही बांटने की रही है। वो नहीं चाहते कि भारत का लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहे। भारत का सिर गर्व से ऊंचा रहे।
मत भूलिए, यह देश एक बहुत बड़े बंटवारे को सालों पहले झेल चुका है। जिसकी टिस अब भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इसे दोबारा न बांटिए। यह जैसा भी है हम सब का मुल्क है। और बहुत ही प्यारा मुल्क है। हमारी जिम्मेदारी है यह मुल्क। हमारी जिम्मेदारी है यहां का हर बाशिंदा। हम ही जब अपने देश के दुश्मन हो जाएंगे तब पड़ोसी तो खिल्ली उड़ाएगा ही। आग से न खेलिए। दहशत न फैलाइए। अगर किसी मुद्दे पर असहमति है तो मिल-बैठकर उसका हल निकालिए हिंसा को अपने हाथों में लिए बिना।
थोड़ा लिबरल बुद्धिजीवियों को भी यह सोचना और समझना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर संयम बरतें। साथ ही, उन्हें भी खुद पर संयम बरतना चाहिए जो बात-बेबात राष्ट्रवाद का झंडा लेकर निकल पड़ते हैं।
बाहर से आकर कोई नहीं बचाएगा, यह हमारा देश है इसे हमें ही बचाना होगा। बांटने का नहीं, शांति का संदेश देना होगा हमें ही अपनों के बीच।
और यह सब दिल्ली में तब हो रहा है, जब हम एक विदेशी मेहमान (अमेरिकी राष्ट्रपति) के साथ थे। वाह! विदेशी मेहमान को भी हमने आखिर बता ही दिया कि स्वभाव में हम कितने 'उद्दंड' और कितने 'अराजक' हैं। हालांकि परंपरा तो हमारी मेहमान के स्वागत-सत्कार की रही है लेकिन हमने तो इसका उल्टा उदाहरण पेश किया। क्या सोच और लिख रहा होगा विदेशी मीडिया हमारे बारे में। यहां के लोगों के बारे में। यहां की कथित महान परंपरा के बारे में। खुद उस मेहमान ने भी क्या सोचा होगा!
किंतु इस सब से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो दरअसल अपने एजेंडे 'कामयाब' हुए। उन्हें लोगों के दिलों में नफरत के बीज बोने थे, बो दिए। देश की राजधानी को दंगे और आग के हवाले कर दिया। उनका काम हो गया। अब वे उन दंगों और आग पर कभी सरकार तो कभी प्रधानमंत्री से जवाब मांगेंगे। जबान जब भी खोलेंगे जहर ही उगलेंगे। उन्हें न चिंता देश की है। न आम नागरिक की। न लोकतंत्र की। न संविधान की। न जल चुके घरों की। न तबाह कर दी गईं दुकानों की। वे तो लगे हुए हैं सेक्युलरिज्म के नाम पर नफरत की रोटियां सेंकने में। शायद वे भीतर ही भीतर खुश भी होंगे!
उधर जो आग सोशल मीडिया के बहाने लगाई जा रही है, वो तो और भी विकट है। कभी अराजक तस्वीरों, कभी हिंसक वीडियो शेयर करना क्या देश में भड़काऊ संदेश नहीं देता। जबकि ऐसे समय में ऐसी चीजों से साफ बचा जाना चाहिए। लोगों के बीच शांति का संदेश देना चाहिए। आग को भड़कने से रोकना चाहिए। यह देश किसी एक का नहीं, हम सब का है। अगर हम ही देश की भद्द पिटवाने को तैयार बैठे रहेंगे तो कोई भी विदेशी मुल्क इसका फायदा उठाएगा ही।
सब कुछ 'विरोध' की आड़ में हो रहा है। लेकिन उन भोले (!) लोगों को यह मालूम ही नहीं कि विरोध का कारण क्या है! उन्हें तो बस एक चीज बता और समझा दी गई है कि तुम्हें विरोध करना है। धरना-प्रदर्शन करना है। सड़क को घेरे रहना है। पत्थरबाजी करनी है। निहत्थों पर वार करना है। सो, वो कर रहे हैं। सब समझ की कमी है। और उसी कमी का फायदा देश को तोड़ और बांटकर उठाया जा रहा है। यह दुखद है।
हिंसा कभी इस देश के स्वभाव में नहीं रही। हम वो मुल्क हैं, जो सदा ही शांति का संदेश देते चले आए हैं। हर जात, हर धर्म के लोग यहां रहते हैं। एक-दूसरे के प्रति दिलों में नफरत नहीं अपनापन और भाईचारा रखते हैं। लेकिन यह एका और भाईचारा उन लोगों की आंखों में खटकता है, जिनकी फितरत ही बांटने की रही है। वो नहीं चाहते कि भारत का लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहे। भारत का सिर गर्व से ऊंचा रहे।
मत भूलिए, यह देश एक बहुत बड़े बंटवारे को सालों पहले झेल चुका है। जिसकी टिस अब भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इसे दोबारा न बांटिए। यह जैसा भी है हम सब का मुल्क है। और बहुत ही प्यारा मुल्क है। हमारी जिम्मेदारी है यह मुल्क। हमारी जिम्मेदारी है यहां का हर बाशिंदा। हम ही जब अपने देश के दुश्मन हो जाएंगे तब पड़ोसी तो खिल्ली उड़ाएगा ही। आग से न खेलिए। दहशत न फैलाइए। अगर किसी मुद्दे पर असहमति है तो मिल-बैठकर उसका हल निकालिए हिंसा को अपने हाथों में लिए बिना।
थोड़ा लिबरल बुद्धिजीवियों को भी यह सोचना और समझना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर संयम बरतें। साथ ही, उन्हें भी खुद पर संयम बरतना चाहिए जो बात-बेबात राष्ट्रवाद का झंडा लेकर निकल पड़ते हैं।
बाहर से आकर कोई नहीं बचाएगा, यह हमारा देश है इसे हमें ही बचाना होगा। बांटने का नहीं, शांति का संदेश देना होगा हमें ही अपनों के बीच।