बार-बार यही ख्याल मन में आ रहा है कि इस दफा 'मजदूर दिवस' किस आधार पर मनाएंगे हम! एक ऐसे समय में जब हमने बड़ी संख्या में मजदूरों को भिन्न-भिन्न शहरों से, हजारों किलोमीटर लंबे फासलों को पैदल ही, तय करते देखा हो। देखा हो कि लंबा सफर तय करते हुए उनके पैर में छाले पड़ गए। उस दृश्य को देख आज भी बेचैनी बढ़ जाती है कि कैसे एक मजदूर अपनी बीमार पत्नी और छोटे-छोटे बच्चों को अपने कंधे पर उठाए चला जा रहा है। न उनके पेट में रोटी है, न हाथ में रोजगार। वे तो बस चले जा रहे थे क्योंकि उन्हें अपने घरों को लौटना था। हैरानी होती है, ऐसे कठिन समय में उस शहर ने भी उन्हें रोकने से इंकार कर दिया, जिसके लिए उन्होंने अपना घर, अपना गांव, अपने परिवार को छोड़ा। लग रहा था, वे शहर भी उन्हें दुत्कार कर कह रहे हैं कि लौट जाओ अपने-अपने घरों को, यहां तुम्हारी चिंता करने वाला अब कोई नहीं। हम जब खुद को ही नहीं बचा पा रहे है, तुम्हें क्या खाक बचाएंगे।
पलायन करते मजदूरों के वे दृश्य निश्चित ही भयावह थे। मगर यहां किसे फिक्र है उनकी। विडंबना देखिए, दूसरे राज्यों से छात्रों को लाने ले जाने के लिए बसें हैं किंतु मजदूरों के लिए कुछ नहीं। अभी सुना है कि प्रवासी मजदूरों को भी बसों से लाया जाएगा। फिर भी बड़ी संख्या में मजदूर पैदल ही रास्तों को नापने के लिए 'मजबूर' हैं। अखबारों में आती तस्वीरें सब बयां कर रही हैं। तिस पर टीवी चैनल चिल्ला-चिल्ला कर उनसे पूछ रहे हैं कि तुम यों पैदल क्यों लौट रहे हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि देश में तालाबंदी है? क्या तुम्हें मालूम नहीं पूरे विश्व को एक भयंकर महामारी ने जकड़ रखा है? क्या तुम्हें 'सोशल डिस्टेंसिंग' की भी परवाह नहीं? क्या तुम वहीं थोड़े दिन और नहीं रुक सकते थे? तुम तो सरकार के किए-कराए पर पानी ही फेर दे रहे हो! टीवी चैनलों पर तब ऐसी खबरें देखकर लग यही रहा था कि एंकर्स न मजदूर को कुछ समझते हैं न उनकी पीड़ाओं को। वे क्या जानें उनके मजदूर होने-बनने के पीछे की कहानी को! उन्हें क्या पता कि इन दिनों मजदूर दो वक्त की छोड़िए, एक वक्त की रोटी खाने के लिए भी बेजार हैं। वो भी मिले न मिले, कुछ नहीं पता।
तालाबंदी ने मजदूर वर्ग को दोराहे पर ला खड़ा लिया है। रोजी-रोजी का विकट संकट उनके सामने है। हाथ में रोजगार न होने के कारण परिवार चला पाना भी उनके लिए मुसीबत बनता जा रहा है। हालांकि राज्य सरकारें कह तो रही हैं कि वे मजदूरों को अपने ही राज्य में रोजगार उपलब्ध करवाएगीं। उन्हें अब बाहर नहीं जाना होगा। लेकिन यह सब इतना जल्दी और इतना आसान न होगा। वर्तमान में देश में रोजगार की स्थिति, कोई बहुत अच्छी नहीं। लॉकडाउन ने देश ही नहीं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। अब तक जाने कितनों के रोजगार जा चुके हैं। जाने कितनों के आगे चले जाने की संभावना है।
हमारे पास अपने तमाम दुख हैं बांटने को लेकिन मजदूर अपने दर्द को बांटने किसके पास जाए। पहले भी मजदूरों के दर्द को हमने कितना सुना था। उनके जीवन की बेहतरी के लिए क्या किया। वे कल भी मजदूर थे, आज भी मजदूर हैं, आगे भी मजदूर ही रहेंगे। बड़े-बड़े राजनीतिक दल उनके नाम पर वोट मांगते हैं। घोषणापत्रों में उनके लिए घोषणाएं भी होती हैं। लेकिन जमीन पर कितनी साकार होती हैं, सब जानते हैं।
कोरोना ने बहुतों की जिंदगी खत्म की। अप्रत्यक्ष रूप से वो मजदूरों के रोजगार को भी निगल गया। वापस रोजगार में वे कैसे और कब तक लौटेंगे, कुछ भी कह पाना बेहद मुश्किल है।
शायद किसी ने कल्पना भी न की होगी कि मजदूर दिवस आएगा तो ऐसे समय में जब मजदूर वर्ग अपने मजदूर होने पर वाकई अफसोस जता रहा होगा। वे पैदल ही चल पड़ेंगे अपने-अपने आशियाने की तरफ; क्या कभी किसी ने सोचा था। जिन कंधों पर शहर के शहर पला करते थे कभी, आज उन थके कंधों को सहारा देने के लिए भी कोई नहीं। अपनी मजबूरी की शिकायत करें भी तो किससे। कौन सुनेगा उन्हें। अभी तो उन्हें हिकारत की नजरों से देखा जा रहा है कि वे लौट क्यों रहे हैं! न लौटें तो क्या करें?
कभी-कभी लगता है, 'मजबूर' होना ही शायद 'मजदूर' होने की निशानी है। क्या नहीं…!
पलायन करते मजदूरों के वे दृश्य निश्चित ही भयावह थे। मगर यहां किसे फिक्र है उनकी। विडंबना देखिए, दूसरे राज्यों से छात्रों को लाने ले जाने के लिए बसें हैं किंतु मजदूरों के लिए कुछ नहीं। अभी सुना है कि प्रवासी मजदूरों को भी बसों से लाया जाएगा। फिर भी बड़ी संख्या में मजदूर पैदल ही रास्तों को नापने के लिए 'मजबूर' हैं। अखबारों में आती तस्वीरें सब बयां कर रही हैं। तिस पर टीवी चैनल चिल्ला-चिल्ला कर उनसे पूछ रहे हैं कि तुम यों पैदल क्यों लौट रहे हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि देश में तालाबंदी है? क्या तुम्हें मालूम नहीं पूरे विश्व को एक भयंकर महामारी ने जकड़ रखा है? क्या तुम्हें 'सोशल डिस्टेंसिंग' की भी परवाह नहीं? क्या तुम वहीं थोड़े दिन और नहीं रुक सकते थे? तुम तो सरकार के किए-कराए पर पानी ही फेर दे रहे हो! टीवी चैनलों पर तब ऐसी खबरें देखकर लग यही रहा था कि एंकर्स न मजदूर को कुछ समझते हैं न उनकी पीड़ाओं को। वे क्या जानें उनके मजदूर होने-बनने के पीछे की कहानी को! उन्हें क्या पता कि इन दिनों मजदूर दो वक्त की छोड़िए, एक वक्त की रोटी खाने के लिए भी बेजार हैं। वो भी मिले न मिले, कुछ नहीं पता।
तालाबंदी ने मजदूर वर्ग को दोराहे पर ला खड़ा लिया है। रोजी-रोजी का विकट संकट उनके सामने है। हाथ में रोजगार न होने के कारण परिवार चला पाना भी उनके लिए मुसीबत बनता जा रहा है। हालांकि राज्य सरकारें कह तो रही हैं कि वे मजदूरों को अपने ही राज्य में रोजगार उपलब्ध करवाएगीं। उन्हें अब बाहर नहीं जाना होगा। लेकिन यह सब इतना जल्दी और इतना आसान न होगा। वर्तमान में देश में रोजगार की स्थिति, कोई बहुत अच्छी नहीं। लॉकडाउन ने देश ही नहीं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। अब तक जाने कितनों के रोजगार जा चुके हैं। जाने कितनों के आगे चले जाने की संभावना है।
हमारे पास अपने तमाम दुख हैं बांटने को लेकिन मजदूर अपने दर्द को बांटने किसके पास जाए। पहले भी मजदूरों के दर्द को हमने कितना सुना था। उनके जीवन की बेहतरी के लिए क्या किया। वे कल भी मजदूर थे, आज भी मजदूर हैं, आगे भी मजदूर ही रहेंगे। बड़े-बड़े राजनीतिक दल उनके नाम पर वोट मांगते हैं। घोषणापत्रों में उनके लिए घोषणाएं भी होती हैं। लेकिन जमीन पर कितनी साकार होती हैं, सब जानते हैं।
कोरोना ने बहुतों की जिंदगी खत्म की। अप्रत्यक्ष रूप से वो मजदूरों के रोजगार को भी निगल गया। वापस रोजगार में वे कैसे और कब तक लौटेंगे, कुछ भी कह पाना बेहद मुश्किल है।
शायद किसी ने कल्पना भी न की होगी कि मजदूर दिवस आएगा तो ऐसे समय में जब मजदूर वर्ग अपने मजदूर होने पर वाकई अफसोस जता रहा होगा। वे पैदल ही चल पड़ेंगे अपने-अपने आशियाने की तरफ; क्या कभी किसी ने सोचा था। जिन कंधों पर शहर के शहर पला करते थे कभी, आज उन थके कंधों को सहारा देने के लिए भी कोई नहीं। अपनी मजबूरी की शिकायत करें भी तो किससे। कौन सुनेगा उन्हें। अभी तो उन्हें हिकारत की नजरों से देखा जा रहा है कि वे लौट क्यों रहे हैं! न लौटें तो क्या करें?
कभी-कभी लगता है, 'मजबूर' होना ही शायद 'मजदूर' होने की निशानी है। क्या नहीं…!
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