Friday, February 19, 2021

कोरोना का खतरा अभी टला नहीं

कोरोना अभी गया नहीं है किंतु हमने मान लिया है कि यह जा चुका है। चूंकि देश और राज्यों में अब सबकुछ खुल चुका है अतः बेपरवाही भी उसी प्रकार से बढ़ गई है। अब शायद ही कहीं दो गज की दूरी का पालन हो रहा हो। अब शायद ही- अपवादों को छोड़कर- कोई मास्क पहन रहा हो। बेफिक्र अंदाज में सब इधर-उधर घूम रहे हैं। सरकार और प्रशासन की तरफ़ से सख्ती भी अब उतनी नहीं रही। पहले जब सख्ती थी, तब ही हमने उसे कितना माना। बेफिक्र और लापरवाह बने रहना हमारी फितरत है। इसे कोई नहीं बदल सकता। शरीर को कितना ही कष्ट दे लेंगे मगर बने लापरवाह ही रहेंगे।

पढ़ने व सुनने में आ रहा है कि कोरोना वायरस एक बार फिर से हम पर हावी होने लगा है। देश में कुछ जगह धीरे-धीरे कर मामले बढ़ने लगे हैं। एकाध जगह लॉकडाउन पुनः लगाया भी गया है। चिंताजनक यह है कि सरकार ने स्कूलों को खोलने के तुगलकी आदेश दे दिए हैं। जबकि कोरोना का खतरा अभी भी बरकरार है। स्कूलों को अभी नहीं खोलना था। माना कि ऑनलाइन पढ़ाई में कुछ दिक्कतें आ रही हैं। कुछ छात्र ठीक से कर भी नहीं पा रहे। पर वर्तमान स्थिति को देखते हुए अभी स्कूल खोलने से बचा जाना चाहिए था। मगर क्या करें, स्कूल अपना आर्थिक फायदा देख रहे हैं। एक साल से बंद पड़े स्कूलों में सारी गतिविधियां बंद हैं। कुछ में फीस भी नहीं आ रही। स्टाफ को आधी तनख्वाह दी जा रही है। किंतु ये सब बच्चों की जिंदगी से बढ़कर तो नहीं।

वायरस बच्चे या बूढ़े में भेद नहीं करता। वो किसी को भी अपनी गिरफ्त में ले सकता। पूरी दुनिया में हुईं मौतें इस बात की गवाह हैं। शायद ही कोई ऐसा देश बचा रहा हो जहां कोरोना ने आतंक न मचाया हो। बहुत कुछ नहीं बल्कि सबकुछ इसने नष्ट करके रख दिया। कितने ही लोग अवसाद में चले गए। कितनों की नौकरियां छूट गईं। रिश्तों में दरारें पड़ गईं। कितनी ही महिलाएं लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की शिकार हुईं।

देखकर लगता है कि हमें ही अपनी जान की फिक्र नहीं। अगर होती तो वायरस पुनः लौटकर न आता। लॉकडाउन का दौर बेहद कठिन था। लोगों के हाथों में न रोजगार रह गया था न कोई उम्मीद। घरों में कैद होकर रह गए थे सभी। दूसरी तरफ़ मजदूरों का पलायन, दर्द और बढ़ा रहा था। हजारों किलोमीटर का सफर पैदल ही करने को वे अभिशप्त थे। कितनों ने ही बीच सफर में दम तोड़ दिया था। सबकुछ कितना भयावह था। 

स्थितियां अब भी बहुत सुधरी नहीं हैं। सरकार अपने तरीके से जनता को बहला रही है कि देखो हमने सबकुछ खोल दिया है। अब तुम जानो, तुम्हारा काम। अपनी जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़कर, सरकार बहादुर फिलहाल चुनावों में व्यस्त हैं। मानो- चुनाव लोगों की जिंदगी से कहीं बढ़कर हों। सरकार को अगर जनता की इतनी ही परवाह होती तो लॉकडाउन में बड़ी तादाद में मजदूरों का पलायन नहीं होता। लेकिन देश में या तो सबकुछ जुमलों के आधार पर चल रहा है या फिर भक्ति के दम पर। जनता का कोई मालिक नहीं। अपनी सुरक्षा वो खुद करे।

पुनः सिर उठाते वायरस से अगर बचना है तो लापरवाही को हमें त्यागना ही होगा। न केवल खुद बचना होगा, साथ-साथ दूसरों को भी बचाना होगा। कहीं ऐसा न हो कोरोना वायरस फिर से हम पर कहर बरपाने लगे।

Monday, October 19, 2020

खबरिया चैनल और भाषा


 कुछ खबरिया चैनलों पर 'भाषा' का अजीब ही खेल चल रहा है। सड़क पर बोली जाने वाली भाषा चैनलों पर आ गई है। किसी को कुछ भी बोल दिया जा रहा है। लगता ही नहीं कि हम न्यूज़ चैनल देख रहे हैं या नेटफ्लिक्स! भाषा की मर्यादा, जोकि न्यूज़ चैनलों की आन रही है, का किसी को ख्याल नहीं।

अक्सर यह सवाल मन में आता है कि क्या खबरिया चैनल चीखने-चिल्लाने और उन्माद पैदा करने के लिए ही रह गए हैं। टीवी पर खबरों का वो दौर भी हमने देखा है, जब दूरदर्शन पर बेहद सहजता और शालीनता के साथ खबरें पढ़ी जाती थीं। खबर प्रोस्ता की भाव-भंगिमा से कभी यह लगता ही नहीं था कि वह अति-उतेजना में है।

लेकिन आज स्थिति यह हो चली है कि टीवी पर खबरें देखने का मन ही नहीं करता। खासकर परिवार के साथ तो बिल्कुल भी नहीं। कभी सोचा न था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब हम खबरें देखने व सुनने से जी चुराएंगे। कुछ भरोसा नहीं रहता कि एंकर कब क्या बोल दे और, उन्हें नहीं, हमें परिवार के बीच शर्मिंदा होना पड़े।

कभी-कभी लगता है कि खबरिया चैनलों पर राजनीति बहस अब बंद होनी ही चाहिए। न शब्दों की मर्यादा न एक-दूसरे की उम्र का ख्याल, जो जिसके मन में आ रहा है खुलेआम बोल दे रहा है। कितनी ही बार आपस में हाथापाई तक की नौबत आ चुकी है। क्या ऐसे होती हैं राष्ट्रीय चैनलों पर बहसें? भाषा को बदनाम किया जाता है।

सुशांत-रिया मसले के बाद से टीवी पर बहस और भाषा अधिक गड़बड़ाई है। दोषी एंकर्स भी हैं। उन्होंने भी मर्यादा का ख्याल नहीं रखा है। चैनल पर बैठकर एंकर्स का चीखना-चिल्लाना क्या शोभा देता है? जो बात आप चीखकर कह रहे हैं, शालीनता से भी पूछ सकते हैं। न भूलिए कि आप एंकर हैं, जज नहीं। आप खबर दे सकते हैं, न्याय नहीं। यह भी न भूलें कि आपकी भाषा को वे नौजवान भी देख-सुन रहे होते हैं, जिन्हें कल को अपना भविष्य किसी अखबार या न्यूज़ चैनल के साथ शुरू करना है। जब आप ही भाषा से डिग जाएंगे फिर बाकी क्या रह जाएगा।

भाषा के कुछ हद तक संस्कार खबरिया चैनलों से भी मिलते हैं। एंकर का खबर पढ़ने का ढंग, शब्दों का चयन, शालीनता का दायरा आदि हमेशा साथ चलती हैं। आलम यह है कि आज किसी भी चैनल को लगा लीजिए, वहां भाषा के दर्शन होंगे, ख्याल ही नहीं आता। बस एकाध मुद्दों तक ही खबरें और बहसें सिमटकर रह गई हैं। देश में इसके अलावा भी बहुत कुछ हो-चल रहा है लेकिन उन्हें खबर नहीं। किसी भी बड़ी खबर को चैनल का आदि और अंत न बनाइए। इससे दर्शक के पास चॉइस ही नहीं बचेगी कि वो क्या देखे, क्या छोड़ दे। दर्शक को एक ही खूंटे से न बांधिए।

कुछ चैनलों का ध्यान आजकल बॉलीवुड में चल रही ड्रग्स की खबरों तक सीमित होकर रह गया है। माना कि यह एक बड़ा और गम्भीर मुद्दा है। पर इतने बड़े देश में सिर्फ एक यही मुद्दा तो नहीं। बहुत कुछ यहां ऐसा होता व चलता रहता है, जहां मीडिया नहीं पहुंच पाता। जाने कितनी अनजानी व अनपहचानी खबरें सोशल मीडिया ही ब्रेक कर देता है। सोशल मीडिया भी एक समानांतर खबरिया माध्यम है। वहां भी दिनभर कुछ न कुछ खबरें और बहसें चलती रहती हैं। यह भी सही है कि भाषा की गरिमा वहां भी तार-तार होती रहती है।

भाषा का पटरी से उतर जाना एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। सिर्फ टीवी चैनल ही नहीं आम समाज भी इससे निरंतर जूझ रहा है। समाधान क्या है? बिल्कुल समाधान है और वह है खुद की ज़बान और शब्दों पर नियंत्रण रखना। यह निर्भर हम पर कि खुद को कितना और कहां तक रोक पाते हैं।

पता नहीं खबरिया चैनलों पर भाषा की गरिमा का वो दौर लौटेगा कि नहीं। पर उम्मीद कर सकते हैं कि कभी न कभी चीजें बदलेंगी और उनमें सुधार भी होगा। तब शायद टीवी पर खबरों का रूप, स्वरूप और भाषा की शुश्चिता आज से कुछ जुदा हो।

Monday, August 31, 2020

दम तोड़ती साहित्यिक पत्रिकाएं


 पहल, तद्भव, वसुधा, अकार, कथाक्रम आदि पत्रिकाएं कितनों के यहां आती हैं और कितने लोग इन्हें वाकई पढ़ते हैं। कम शायद बहुत ही कम। कुछ ही लोगों तक पहुंच है इन साहित्यिक पत्रिकाओं की। अभी ये, कैसे भी करके, चल-निकल रही हैं। मगर कब तक। जब तक इनके संपादक हैं। उनके बाद इन पत्रिकाओं का क्या होगा, अंजाम हमें मालूम है। साहित्य में युवा पीढ़ी की रुचि कितनी है, अपवाद छोड़कर, ये हमें मोबाइल पर उनकी गर्दनें झुकी देखकर पता चल ही जाता है। इस पीढ़ी के लिए किताबों से कहीं अधिक जरूरी मोबाइल हैं। उन पर जो आ रहा है, व्हाट्सएप या फेसबुक पर जो उन्हें मिल रहा है, वही इनके लिए 'पर्याप्त' है। 'ई-बुक' और 'किंडल' पर जान न्यौछावर करती है ये पीढ़ी।

60 और 70 के बाद की पीढ़ी फिर भी कुछ पुरानी चीजों को संभाले व संजोए हुए है। 2000 के बाद की पीढ़ी कभी पुराना कुछ संभाल पाएगी, मुझे शक है। दुनिया और जमाना जितनी तेजी से बदलकर डिजिटल होता जा रहा है, ऐसे में साहित्यिक पत्रिकाओं का वर्तमान और भविष्य 'शून्य'-सा ही नजर आता है। नई पीढ़ी के पास समय नहीं। समय है फिर भी नहीं। साहित्य के लिए, खासकर हिंदी साहित्य के लिए, उनके पास वाकई समय नहीं। साहित्य पर उनका ज्ञान 'प्रेमचंद' तक सीमित है। बाकी अंग्रेजी के लेखक उनके लिए बहुतेरे हैं। हिंदी की पत्रिकाओं या अखबारों में क्या चल रहा है उन्हें नहीं मालूम। हां, 'रसोड़े में कौन था' निश्चित ही उन्हें मालूम होगा!

कादम्बिनी और नंदन पत्रिकाओं का बंद होना मेरे जैसे लोगों के लिए किसी 'बुरी खबर' या 'सदमे' से कम नहीं। ये वे पत्रिकाएं थीं, जिन्हें पढ़कर हमने साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति अपनी सोच विकसित की। उन्हें जाना-समझा। साहित्य और संस्कृति के विविध रूप-रंग देखे। दुखद है कि अब यह हमारे बीच न रहेगीं। पर इनके न रहने पर कितने लोग 'अफसोस' जताएंगे? बहुत कम। क्योंकि उनके लिए किसी भी पत्रिका का बंद होना कोई खबर नहीं होता। उनकी जिंदगी जैसी है, वैसी ही चलती रहेगी। किसी पत्रिका या अखबार का बंद होना, एक 'विचार' का बंद हो जाने के समान होता है। विचार यों भी अब पत्रिकाओं और अखबारों से छीजने लगा है। राजनीतिक स्वार्थ अधिक हावी होते जा रहे हैं। विचार को सोशल मीडिया बहुत तेजी से निगल रहा है। और हम खामोश बैठे तमाशा देख रहे हैं।

गनीमत है, अभी हंस और कथादेश जैसी बड़ी पत्रिकाएं हमारे बीच हैं लेकिन कब तक! जब हम धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान जैसी पत्रिकाओं के बंद होने पर चुप्पी साधे रहे, कोई आश्चर्य नहीं कि कल को 'हंस' और 'कथादेश' के बंद होने पर भी कुछ न बोलेंगे। बहुत होगा तो फेसबुक पर एक पोस्ट लिख, मातम मना लेंगे। हिन्दी समाज, कहना न होगा, अपनी भाषा और पत्रिकाओं के प्रति बहुत 'उदासीन' रहता है। उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे 'कादम्बिनी' बंद या 'नंदन'। उसकी अपनी दुनिया है, जो फेसबुक और मोबाइल पर दिन-रात व्यस्त रहती है।

सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है। पत्रिकाओं के आर्थिक पक्ष इतने कमजोर हैं कि वे निकलें भी तो कैसे। जब उन पर आर्थिक संकट होता है, तब कोई निकलकर सामने नहीं आता मदद को। बाहर से बातें बनाने और 'कुछ करने' में बहुत अंतर है। पत्रिकाओं के साथ प्रायः होता यह है कि उनका प्रबंधन ही उन्हें काल के गाल में समा देता है। वहीं अंग्रेजी पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार हिंदी से कहीं बेहतर है। ऐसा नहीं कि वहां पत्रिकाएं बंद नहीं हुईं, हुई हैं मगर हिंदी में यह संख्या कुछ अधिक ही है। पत्रिका या अखबार को चला पाना इतना आसान नहीं होता। जब आर्थिक मदद नहीं मिलेगी फिर एक उन्हें बंद होना ही होगा।

वरिष्ठ लेखक सुधीर विद्यार्थी को अपनी पत्रिका संदर्श को निकालना इसलिए स्थगित करना पड़ा क्योंकि उनके पास संसाधन नहीं। अपना घर फूंक कर कब भला कौन कब तलक तमाशा देखेगा। इसीलिए 'संदर्श' के सफर को भी बीच में ही रोक देना पड़ा। हसन जमाल की पत्रिका 'शेष' का भी कुछ पता नहीं कि वो अब निकल भी रही है या बंद हो गई। हिंदी-उर्दू के मध्य एक सेतु की तरह थी शेष। कितने ही उर्दू अफसानानिगारों के हिंदी अनुवाद (अफसाने) शेष में पढ़े हैं हमने।

अफसोस के अतिरिक्त हमारे पास कुछ नहीं कादम्बिनी और नंदन के बंद हो जाने पर। अभी आगे और कितनी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं आर्थिक स्तर पर दम तोड़ेगी, नहीं पता। तब भी हमारे पास 'अफसोस' ही होगा जतलाने को।

Saturday, May 2, 2020

मजबूर हैं क्योंकि वे मजदूर हैं

बार-बार यही ख्याल मन में आ रहा है कि इस दफा 'मजदूर दिवस' किस आधार पर मनाएंगे हम! एक ऐसे समय में जब हमने बड़ी संख्या में मजदूरों को भिन्न-भिन्न शहरों से, हजारों किलोमीटर लंबे फासलों को पैदल ही, तय करते देखा हो। देखा हो कि लंबा सफर तय करते हुए उनके पैर में छाले पड़ गए। उस दृश्य को देख आज भी बेचैनी बढ़ जाती है कि कैसे एक मजदूर अपनी बीमार पत्नी और छोटे-छोटे बच्चों को अपने कंधे पर उठाए चला जा रहा है। न उनके पेट में रोटी है, न हाथ में रोजगार। वे तो बस चले जा रहे थे क्योंकि उन्हें अपने घरों को लौटना था। हैरानी होती है, ऐसे कठिन समय में उस शहर ने भी उन्हें रोकने से इंकार कर दिया, जिसके लिए उन्होंने अपना घर, अपना गांव, अपने परिवार को छोड़ा। लग रहा था, वे शहर भी उन्हें दुत्कार कर कह रहे हैं कि लौट जाओ अपने-अपने घरों को, यहां तुम्हारी चिंता करने वाला अब कोई नहीं। हम जब खुद को ही नहीं बचा पा रहे है, तुम्हें क्या खाक बचाएंगे।

पलायन करते मजदूरों के वे दृश्य निश्चित ही भयावह थे। मगर यहां किसे फिक्र है उनकी। विडंबना देखिए, दूसरे राज्यों से छात्रों को लाने ले जाने के लिए बसें हैं किंतु मजदूरों के लिए कुछ नहीं। अभी सुना है कि प्रवासी मजदूरों को भी बसों से लाया जाएगा। फिर भी बड़ी संख्या में मजदूर पैदल ही रास्तों को नापने के लिए 'मजबूर' हैं। अखबारों में आती तस्वीरें सब बयां कर रही हैं। तिस पर टीवी चैनल चिल्ला-चिल्ला कर उनसे पूछ रहे हैं कि तुम यों पैदल क्यों लौट रहे हो? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि देश में तालाबंदी है? क्या तुम्हें मालूम नहीं पूरे विश्व को एक भयंकर महामारी ने जकड़ रखा है? क्या तुम्हें 'सोशल डिस्टेंसिंग' की भी परवाह नहीं? क्या तुम वहीं थोड़े दिन और नहीं रुक सकते थे? तुम तो सरकार के किए-कराए पर पानी ही फेर दे रहे हो! टीवी चैनलों पर तब ऐसी खबरें देखकर लग यही रहा था कि एंकर्स न मजदूर को कुछ समझते हैं न उनकी पीड़ाओं को। वे क्या जानें उनके मजदूर होने-बनने के पीछे की कहानी को! उन्हें क्या पता कि इन दिनों मजदूर दो वक्त की छोड़िए, एक वक्त की रोटी खाने के लिए भी बेजार हैं। वो भी मिले न मिले, कुछ नहीं पता।

तालाबंदी ने मजदूर वर्ग को दोराहे पर ला खड़ा लिया है। रोजी-रोजी का विकट संकट उनके सामने है। हाथ में रोजगार न होने के कारण परिवार चला पाना भी उनके लिए मुसीबत बनता जा रहा है। हालांकि राज्य सरकारें कह तो रही हैं कि वे मजदूरों को अपने ही राज्य में रोजगार उपलब्ध करवाएगीं। उन्हें अब बाहर नहीं जाना होगा। लेकिन यह सब इतना जल्दी और इतना आसान न होगा। वर्तमान में देश में रोजगार की स्थिति, कोई बहुत अच्छी नहीं। लॉकडाउन ने देश ही नहीं पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को भयंकर नुकसान पहुंचाया है। अब तक जाने कितनों के रोजगार जा चुके हैं। जाने कितनों के आगे चले जाने की संभावना है।

हमारे पास अपने तमाम दुख हैं बांटने को लेकिन मजदूर अपने दर्द को बांटने किसके पास जाए। पहले भी मजदूरों के दर्द को हमने कितना सुना था। उनके जीवन की बेहतरी के लिए क्या किया। वे कल भी मजदूर थे, आज भी मजदूर हैं, आगे भी मजदूर ही रहेंगे। बड़े-बड़े राजनीतिक दल उनके नाम पर वोट मांगते हैं। घोषणापत्रों में उनके लिए घोषणाएं भी होती हैं। लेकिन जमीन पर कितनी साकार होती हैं, सब जानते हैं।

कोरोना ने बहुतों की जिंदगी खत्म की। अप्रत्यक्ष रूप से वो मजदूरों के रोजगार को भी निगल गया। वापस रोजगार में वे कैसे और कब तक लौटेंगे, कुछ भी कह पाना बेहद मुश्किल है।

शायद किसी ने कल्पना भी न की होगी कि मजदूर दिवस आएगा तो ऐसे समय में जब मजदूर वर्ग अपने मजदूर होने पर वाकई अफसोस जता रहा होगा। वे पैदल ही चल पड़ेंगे अपने-अपने आशियाने की तरफ; क्या कभी किसी ने सोचा था। जिन कंधों पर शहर के शहर पला करते थे कभी, आज उन थके कंधों को सहारा देने के लिए भी कोई नहीं। अपनी मजबूरी की शिकायत करें भी तो किससे। कौन सुनेगा उन्हें। अभी तो उन्हें हिकारत की नजरों से देखा जा रहा है कि वे लौट क्यों रहे हैं! न लौटें तो क्या करें?

कभी-कभी लगता है, 'मजबूर' होना ही शायद 'मजदूर' होने की निशानी है। क्या नहीं…!

Wednesday, March 4, 2020

चिट्ठियों का वो दौर

अंतिम चिट्ठी कब और किसे लिखी थी, कुछ याद नहीं। ऐसा भी नहीं है कि अब चिट्ठियां लिखी ही नहीं जातीं। निश्चित ही लिखी जाती होंगी पर या तो सरकारी या फिर औपचारिक। एक-दूसरे की चिट्ठी लिखकर कुशल-क्षेम पूछने के दिन कब के हवा हुए। विडंबना यह है कि अब तो आसपास 'लैटर बॉक्स' भी नजर नहीं आते।

चिट्ठियों को भी अब बीती सदी की बात मान लिया गया है। आज की पीढ़ी ने तो शायद न 'पोस्टकार्ड' देखे होंगे न 'अंतर्देशीय पत्र'। न हमने ही उन्हें कभी बताने की फुर्सत पाई होगी कि एक दौर ऐसा भी रहा है, जब आपसी संवाद का जरिया 'चिट्ठियां' हुआ करती थीं। आज जितनी बेसब्री से व्हाट्सएप पर मैसेज पाने का इंतजार रहता है, उस दौर में उतनी ही बेसब्री से चिट्ठी पाने का इंतजार रहता था। मगर उस इंतजार का अपना ही मजा था। तब डाकिया हमारा 'भगवान' हुआ करता था। उसके हाथ में अपनी चिट्ठी देखकर जो खुशी मिलती थी, वो आज ई-मेल या व्हाट्सएप पाकर भी नहीं मिलती। बेशक वो दौर अलग था पर था खूबसूरत।

ई-मेल और अन्य मैसेजिंग एप्स ने यकीनन संदेशों की दूरियों को घटाया है मगर सबकुछ मशीनी कर दिया है। अब तो एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) जैसी एडवांस तकनीक को डेवलप कर, दिमाग और सोच की पूरी परिकल्पना को ही बदलकर रख दिया गया है। आप की सोच से तेज मशीन सोचने लगी है। मशीन आपका दिमाग पढ़ रही है। हर सोच को सोचने में आपकी मदद कर रही है। आप क्या, कितना और कहां सोच रहे हैं मशीन को सब खबर रहती है। इन दिनों पूरे विश्व में एआई पर बहुत तेजी से काम हो रहा है। अब तो इसके सकारात्मक रिजल्ट भी आना शुरू हो गए हैं।

कभी-कभी इंतजार मुझे खोखला और बेमानी शब्द लगता है। आज के युग में किसी से इंतजार करने को बोलो तो मुंह बिचकाता है। उसे इंतजार नहीं सबकुछ अभी और इंस्टेंट मोड में चाहिए। एसएमएस का दौर जब तक रहा तब तक थोड़ा फिर भी सुकून था कि देर-सवेर संदेशा आ ही जाएगा। लेकिन व्हाट्सएप के आ जाने से तो वो बेसब्री का पारा कभी-कभी इतना ऊंचाई पर पहुंच जाता है कि कुछ पूछिए ही मत। इधर व्हाट्सएप किया उधर 'ब्लू टिक' दिखा नहीं कि आंखें मैसेज पढ़ने के इंतजार में लगी रहती हैं।

डिजिटल दुनिया ने हमारे दिमाग, सोच, व्यवहार की संरचना को कुछ ऐसा बना दिया है कि बीच में से 'धैर्य' समाप्त ही हो गया है। ऐसे में भला आज के मनुष्य से आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो चिट्ठी का इंतजार करेगा या किसी को लिखेगा! मुश्किल है। समय की कमी और अति-व्यस्तताओं ने सब गुड़गोबर कर दिया है। दूसरों का तो दूर की बात रही, हमारे पास इतना भी समय नहीं होता कि थोड़ा रुककर अपना ही इंतजार कर लें।

चिट्ठियों ने हमारे रिश्तों को भी खूब संभाला व सहेजा था। आज भी कहीं किन्हीं पुरानी चिट्ठियों के बीच जब किसी रिश्तेदार या दोस्त की चिट्ठी हाथ लग जाती है, तब उस खुशी को बयां कर पाना मुश्किल होता है। उनमें व्यक्त एक-एक शब्द दिल के करीब लगता है। मैं तो अक्सर ही उन पुरानी चिट्ठियों को पढ़ने बैठ जाता हूं। वो भी एक अलग तरह का साहित्य है। इस साहित्य में परिवार भी है, समाज भी है, दुख-सुख भी हैं, अपनापन भी है जो ईमेल या व्हाट्सएप पाने पर महसूस नहीं किया जा सकता।

बदलते समय का प्रभाव इतना पड़ा है कि अब पत्रिकाओं में लेखकों के पते भी कम छपने लगे हैं। या तो उनके ईमेल दर्ज रहते हैं या फिर मोबाइल नंबर। पहले पत्र संपर्क में नीचे लेखक का पता जाता था। अब चिट्ठी कौन लिखे! लेख पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया ईमेल या फोन कर दे दी। कुछ अखबारों में तो 'पत्र स्तंभ' भी सिमट-सा गया है।

दुखद है, हमने पुराना कुछ भी नई पीढ़ी के लिए नहीं छोड़ा है। सबकुछ को धीरे-धीरे कर नष्ट करते जा रहे हैं। सिर्फ चिट्ठियां ही नहीं, रिश्ते भी बहुत तेजी से बेमानी हो रहे हैं। सब इतिहास के पन्नों में चले जाने को अभिशप्त है। कभी कलम थामे रहने वाला वर्ग अब 'की-पैड' और 'टच-स्क्रीन' का गुलाम बनकर रह गया है। भला किसे फुर्सत है, खत लिखने और पढ़ने की। डिजिटल माया की गिरफ्त में सब कैद हैं।

यह सही है कि चिट्ठियों का वो 'सुनहरा दौर' लौटकर वापस नहीं आएगा। जब-तब यादों में आकर हमें याद दिलाता रहेगा कि कभी अपना वक़्त भी था। बदलते समय में स्थायी कुछ होता। हो सकता है, ईमेल और व्हाट्सएप से भी एडवांस कुछ और आ जाए। हो सकता है, लिखे हुई शब्द किसी और ही रूप में हमारे सामने हों। ऐसे समय में जब मशीन ने इंसानी दिमाग को पढ़ना शुरू कर दिया है, तब यहां कुछ भी संभव है।

ऐसा खैर कर तो नहीं पाएंगे। लेकिन जब समय हो और दिल करे तो एक चिट्ठी अपने पते पर अपने ही नाम लिख भेजिए। अच्छा लगेगा।

हिंसा और सोशल मीडिया

क्या सोशल मीडिया से मुझे अब हमेशा के लिए दूर हो जाना चाहिए? बार-बार यह सवाल मेरे मन में आता है। जो और जैसे हालात इन दिनों सोशल मीडिया के बना दिए गए हैं या बना दिए जा रहे हैं, उन्हें देखते हुए इससे दूरी अब उचित लगने लगी है। दिन-रात यहां शब्दों, विचारों और भाषा की 'हिंसा' का तमाशा चलता रहता है। कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पर किसी को कुछ भी कह दिया जाता है। न छोटे में छोटेपन की, न बड़े में बड्डपन की 'तमीज' रह गई है। जहां कोई किसी से किसी मुद्दे या बात पर असमहत हुआ बस गरियाना शुरू। यह जहिलपन नहीं क्या?

कभी-कभी मुझे लगता है, जितनी हिंसा जमीन पर हो रही है, उससे कहीं अधिक यहां सोशल मीडिया पर चल रही है। यहां लोग लिखते नहीं बल्कि मन की भड़ास निकालते हैं। खुद के लिखे को सही मगर दूसरे के लिखे को गलत साबित करने में किसी भी सीमा को पार कर सकते हैं। न किसी के पास धैर्य है सुनने का न किसी के पास सहनशक्ति है आलोचना को बर्दाश्त करने की। जिसे देखो वो कुएं का मेढ़क बना हुआ है; दिन-रात वही टर्र-टर्र। कितना शाब्दिक जहर भरा है लोगों के दिलो-दिमाग में कि पढ़कर कोफ्त होती है।

इससे तो कहीं बेहतर और सभ्य हम सोशल मीडिया के आने से पहले थे। तब हमारे दिमागों और दिलों में इतना जहर तो नहीं भरा था। तब हम आपस में बहस भी करते थे, लड़ते भी थे, बुरा-भला भी कहते थे मगर शालीनताएं फिर भी साथ थीं। तब दंगों पर राजनीति नेता या पार्टियां करती थीं। लेकिन अब आलम यह है कि सोशल मीडिया पर जमा हर व्यक्ति दंगों पर न सिर्फ राजनीति कर रहा है बल्कि हिंसक तस्वीरों और वीडियो से भड़का भी रहा है। क्या एक सभ्य समाज और लोकतांत्रिक देश में इसे उचित कहा या माना जाएगा? नहीं, कभी नहीं। उस व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं, जो बिगड़ैल बोलों से जनमानस को भड़काए। पर दुखद है, इन दिनों यही हो रहा है। दुख तब अधिक होता है, जब खुद को लिबरल कहने वाले भी शब्द और भाषाई मर्यादा की परवाह नहीं करते। वे विचार और विचारधारा की बात तो करते हैं किंतु स्वयं उसका ध्यान नहीं रखते।

मुझे लगता है, हममें से हर एक ने अपनी बुद्धि को सांप्रदायिक लोगों के पास गिरवी रख दिया है। खुद अपनी अक्ल से काम लेना बंद कर दिया है। जो नेता कह-बोल रहा है, उसे ही पत्थर की लकीर मान लिया है। कैसे, आखिर कैसे हम सोशल मीडिया पर लिखी और फैलाई जा रही हर बात को सच मान सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम मारपीट और हिंसा का समर्थन कर सकते हैं? कैसे, आखिर कैसे हम जलती दुकानों, जलते घरों और जलते शहर को देखकर खुश हो सकते हैं? मत भूलिए, हम इंसान हैं जानवर नहीं। क्या इंसानियत नाम की कोई चीज हममें अब बाकी नहीं रह गई है! क्या हम भी उसी भेड़चाल का हिस्सा हो गए हैं! क्या देश की भी हमें अब कोई परवाह नहीं!

चौबीस घंटे सोशल मीडिया और टीवी पर चलने वाली इस हिंसा को मैं नहीं देख सकता। एक मैं ही नहीं मुझ जैसा हर वो शख्स यह सब नहीं देखना चाहेगा, जो अपने दिल में इंसान, समाज और देश के प्रति प्यार और संवेदनशीलता रखता है। न केवल सोशल मीडिया बल्कि समाज में व्याप्त इस हिंसा को हमें रोकना ही होगा। नहीं तो हमारा देश और समाज बिखर जाएगा। इसका लोकतांत्रिक तानाबाना गड़बड़ा जाएगा। ध्वस्त हो जाएंगे वो मूल्य जो कभी हमारे पूर्वजों ने केभी स्थापित किए थे। फिर, आगे आने वाली पीढ़ी को हम क्या देंगे! उसे क्या बताएंगे कि हम कैसे और किस हद तक साम्प्रदायिक हैं!

सोशल मीडिया को इतना हिंसक मत बनाइए कि मेरे जैसे संवेदनशील इंसान यहां से खुद को हमेशा के लिए दूर रखने के बारे में सोचने लगें। असहमति, आलोचना और विरोध दर्ज करवाइए पर भाषाई दायरे में रहकर। खुद में और जानवर इतना तो फर्क हमें रखना ही होगा। नहीं क्या?

Friday, February 28, 2020

बांटिए नहीं, बांटने से बचाइए देश को

वो दरअसल सब जानते हैं कि वो क्या कर रहे हैं। देश में साम्प्रदायिक आग की भट्टी जलाकर 'शांति' की अपील कर रहे हैं। खुद को सेक्युलर घोषित कर रहे हैं। लेकिन हम क्या करेंगे उनके सेक्युलरिज्म का? ऐसा सेक्युलरिज्म भला किस काम का जो देश को बांटे। दिलों में नफरत की दीवारें पैदा करे। नहीं, ऐसा सेक्युलरिज्म नहीं चाहिए।

और यह सब दिल्ली में तब हो रहा है, जब हम एक विदेशी मेहमान (अमेरिकी राष्ट्रपति) के साथ थे। वाह! विदेशी मेहमान को भी हमने आखिर बता ही दिया कि स्वभाव में हम कितने 'उद्दंड' और कितने 'अराजक' हैं। हालांकि परंपरा तो हमारी मेहमान के स्वागत-सत्कार की रही है लेकिन हमने तो इसका उल्टा उदाहरण पेश किया। क्या सोच और लिख रहा होगा विदेशी मीडिया हमारे बारे में। यहां के लोगों के बारे में। यहां की कथित महान परंपरा के बारे में। खुद उस मेहमान ने भी क्या सोचा होगा!

किंतु इस सब से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। वो तो दरअसल अपने एजेंडे 'कामयाब' हुए। उन्हें लोगों के दिलों में नफरत के बीज बोने थे, बो दिए। देश की राजधानी को दंगे और आग के हवाले कर दिया। उनका काम हो गया। अब वे उन दंगों और आग पर कभी सरकार तो कभी प्रधानमंत्री से जवाब मांगेंगे। जबान जब भी खोलेंगे जहर ही उगलेंगे। उन्हें न चिंता देश की है। न आम नागरिक की। न लोकतंत्र की। न संविधान की। न जल चुके घरों की। न तबाह कर दी गईं दुकानों की। वे तो लगे हुए हैं सेक्युलरिज्म के नाम पर नफरत की रोटियां सेंकने में। शायद वे भीतर ही भीतर खुश भी होंगे!

उधर जो आग सोशल मीडिया के बहाने लगाई जा रही है, वो तो और भी विकट है। कभी अराजक तस्वीरों, कभी हिंसक वीडियो शेयर करना क्या देश में भड़काऊ संदेश नहीं देता। जबकि ऐसे समय में ऐसी चीजों से साफ बचा जाना चाहिए। लोगों के बीच शांति का संदेश देना चाहिए। आग को भड़कने से रोकना चाहिए। यह देश किसी एक का नहीं, हम सब का है। अगर हम ही देश की भद्द पिटवाने को तैयार बैठे रहेंगे तो कोई भी विदेशी मुल्क इसका फायदा उठाएगा ही।

सब कुछ 'विरोध' की आड़ में हो रहा है। लेकिन उन भोले (!) लोगों को यह मालूम ही नहीं कि विरोध का कारण क्या है! उन्हें तो बस एक चीज बता और समझा दी गई है कि तुम्हें विरोध करना है। धरना-प्रदर्शन करना है। सड़क को घेरे रहना है। पत्थरबाजी करनी है। निहत्थों पर वार करना है। सो, वो कर रहे हैं। सब समझ की कमी है। और उसी कमी का फायदा देश को तोड़ और बांटकर उठाया जा रहा है। यह दुखद है।

हिंसा कभी इस देश के स्वभाव में नहीं रही। हम वो मुल्क हैं, जो सदा ही शांति का संदेश देते चले आए हैं। हर जात, हर धर्म के लोग यहां रहते हैं। एक-दूसरे के प्रति दिलों में नफरत नहीं अपनापन और भाईचारा रखते हैं। लेकिन यह एका और भाईचारा उन लोगों की आंखों में खटकता है, जिनकी फितरत ही बांटने की रही है। वो नहीं चाहते कि भारत का लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित रहे। भारत का सिर गर्व से ऊंचा रहे।

मत भूलिए, यह देश एक बहुत बड़े बंटवारे को सालों पहले झेल चुका है। जिसकी टिस अब भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इसे दोबारा न बांटिए। यह जैसा भी है हम सब का मुल्क है। और बहुत ही प्यारा मुल्क है। हमारी जिम्मेदारी है यह मुल्क। हमारी जिम्मेदारी है यहां का हर बाशिंदा। हम ही जब अपने देश के दुश्मन हो जाएंगे तब पड़ोसी तो खिल्ली उड़ाएगा ही। आग से न खेलिए। दहशत न फैलाइए। अगर किसी मुद्दे पर असहमति है तो मिल-बैठकर उसका हल निकालिए हिंसा को अपने हाथों में लिए बिना।

थोड़ा लिबरल बुद्धिजीवियों को भी यह सोचना और समझना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर संयम बरतें। साथ ही, उन्हें भी खुद पर संयम बरतना चाहिए जो बात-बेबात राष्ट्रवाद का झंडा लेकर निकल पड़ते हैं।

बाहर से आकर कोई नहीं बचाएगा, यह हमारा देश है इसे हमें ही बचाना होगा। बांटने का नहीं, शांति का संदेश देना होगा हमें ही अपनों के बीच।